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जानकारीबेताल पचीसी पच्चीस कथाओं से युक्त एक ग्रन्थ है। इसके रचयिता बेतालभट्ट बताये जाते हैं जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं। By वनिता कासनियां पंजाबबेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता।बैताल पचीसी की कहानियाँ भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं। इनका स्रोत राजा सातवाहन के मन्त्री “गुणादय” द्वारा रचित “बड कहा” नामक ग्रन्थ को दिया जाता है जिसकी रचना ई. पूर्व ४९५ में हुई थी । कहा जाता है कि यह किसी पुरानी प्राकृत में लिखा गया था और इसमे ७ लाख छन्द थे। आज इसका कोई भी अंश कहीं भी प्राप्त नहीं है। कश्मीर के कवि सोमदेव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और कथासरित्सागर नाम दिया। बड़कहा की अधिकतम कहानियों को कथा सरित्सागर में संकलित कर दिए जाने के कारण ये आज भी हमारे पास हैं। “वेताल पन्चविन्शति” यानी बेताल पच्चीसी “कथा सरित सागर” का ही भाग है। समय के साथ इन कथाओं की प्रसिद्धि अनेक देशों में पहुँची और इन कथाओं का बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ। बेताल के द्वारा सुनाई गई यो रोचक कहानियाँ सिर्फ़ दिल बहलाने के लिये नहीं हैं, इनमें अनेक गूढ अर्थ छिपे हैं। क्या सही है और क्या गलत, इसको यदि हम ठीक से समझ ले तो सभी प्रशासक राजा विक्रम कि तरह न्याय प्रिय बन सकेंगे, और छल व द्वेष छोडकर, कर्म और धर्म की राह पर चल सकेंगे। इस प्रकार ये कहानियाँ न्याय, राजनीति और विषण परिस्थितियों में सही निर्णय लेने की क्षमता का विकास करती हैं।

जानकारी बेताल पचीसी पच्चीस कथाओं से युक्त एक ग्रन्थ है। इसके रचयिता बेतालभट्ट बताये जाते हैं जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं।  By  वनिता कासनियां पंजाब बेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता। बैताल पचीसी की कहानियाँ भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं। इनका स्रोत राजा सातवाहन के मन्त्री “गुणादय” द्वारा रचित “बड कहा” नामक ग्रन्थ को दिया जाता है जिसकी रचना ई. पूर्व ४९५ में हुई थी । कहा जाता है कि यह किसी पुरानी प्राकृत में लिखा गया था और इसमे ७ लाख छन्द थे। आज इसका कोई भी अंश कहीं भी प्राप्त नहीं है। कश्मीर के कवि सोमदेव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और कथासरित्सागर नाम दिया। बड़कहा की अधिकतम कहानियों को कथा सरित्सागर में संकलित कर दिए जाने के कारण ये आज ...

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♥️ कहानीया ♥ _*क्या हमने कभी प्रयोग किया है कि हम कितने पलों तक अपनी श्वास को रोक सकते हैं?*_ *सर्वश्रेष्ठ कौन?* "मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ!" आँखों ने घोषणा की। "मेरे बिना तुम इस संसार में कुछ नहीं देख सकते।" "अरे, लेकिन यह सच नहीं है!" कान चिल्लाए। "मेरे बिना तुम कुछ नहीं सुन सकोगे। तुम किसी भी बात का उत्तर नहीं दे पाओगे और मूर्ख दिखोगे।" By वनिता कासनियां पंजाब हमारे शरीर की इंद्रियाँ बुरी तरह लड़ने लगीं कि उनमें से कौन-सी सबसे महत्त्वपूर्ण है। अंत में, उन सब ने बहस बंद करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने रचयिता से पूछा, "हम में से सर्वश्रेष्ठ कौन है?" रचयिता ने उत्तर दिया, "अगर कोई इंद्रिय शरीर को त्याग दे और शरीर फिर भी काम करता रहे, तब तो सब ठीक है। लेकिन अगर कोई इंद्रिय शरीर को त्यागे और शरीर ढह जाए, तो क्या वही सबसे महत्त्वपूर्ण नहीं होगी?" तो, प्रत्येक इंद्रिय ने एक-एक करके एक वर्ष के लिए मानव शरीर त्यागने का फ़ैसला किया। सबसे पहले जिह्वा गई। जब वह वापस आई, तो उसने उत्सुकता से दूसरों से पूछा, "मेरे बिना जीवन ...

क्या दान करने से पैसा बढ़ता ही है? By वनिता कासनियां पंजाब ,दान देने से कभी भी "कुछ" घटता नहीं है बल्कि बढ़ता ही है, अब आप मेरी बात पर क्यों विश्वास करेंगे इसलिए पहले मैं आपको एक नहीं दो कहानी/दृष्टांत सुनाऊंगी, जो दृष्टांत मैंने चित्र के रूप में यहां पर प्रस्तुत की है, उसे मैंने अपने मोबाइल कैमरे से खींच कर, यहां प्रस्तुत किया है अतः चित्र सोर्स है मेरा मोबाइल फोन और उसकी गैलरी है"हमारे पास अभी जो भी धन है, उसे हमने पिछले जन्म में किए गए परमाथ कार्यों के पुण्यस्वरूप पाया है, परंतु अब हम पुरुषार्थरूपी पुण्यकार्य नहीं कर रहे हैं, इसलिए पिछले पुण्य समाप्त होते ही हमें भीख माननी पड़ेगी"क्योंकि यह कहानी भीख से समाप्त हुई है अतः एक भिखारी की दूसरी कहानी आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूंएक भिखारी ईश्वर से प्रार्थना करते हुए घर से निकला, कि है ईश्वर आज मेरी पूरी झोली भिक्षा से भर दे, तभी उसे सामने से आता हुआ राजा दिखाई पड़ा..ध्यान दें, जो बात में बताने जा रहा हूं वह ब्रह्मांड का रहस्य उस भिखारी को नहीं पता था और हम में से बहुत लोगों को भी यह रहस्य नहीं मालूम ईश्वर ने सृष्टि इसी तरह की बनाई है कि देने वाले को वह और पूरा कर देता है और लेने वाले से धीरे-धीरे सब कुछ लेने लगता है, अगर मेरी बातों पर कम विश्वास हो रहा है तो कृपया बाइबल में भी इस बात की पुष्टि करें ..सामने से जब भिखारी को राजा आते दिखाई पड़ा, भिखारी ने सोचा कि आज राजाजी से मिलने वाले दान-दक्षिणा से उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा। लेकिन यह क्या राजा ने भिखारी को कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे सेवा/दान करने की कहने लगा। (भिखारी की स्थिति हम लोग के जैसे हो गई,जैसे हम लोगों को जीवन में कुछ समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों हो रहा है ? और क्या किया जाए) भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अब मजबूरी थी भिखारी क्या करता जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की झोली-चादर में डाल दिए। उस दिन ईश्वर की कृपा से भिखारी को अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा।(कभी- कभी किसी को कुछ देने के बाद हम मनुष्यों को भी हमेशा मलाल रहता है) शाम को जब भिखारी ने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो के दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह सेवा/ दान की महिमा के कारण ही हुआ। वह पछताया कि - काश! उस समय उसने राजाजी को और अधिक जौ दिए होते लेकिन हाय रे किस्मत, हाय रे नियत, भिखारी दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।पहले मेरी स्वयं की आदत इस भिखारी जैसी थी,मैं केवल लेना जानती थीं किसी को कुछ देती नहीं थीयहां तक कि ज्योतिष परामर्श भी मुफ्त में चाहती थी/ ज्योतिष शिक्षा भी मुफ्त में चाहता थी लेकिन ईश्वर की कृपा से मुझको इस प्रकार की कुछ सच्ची कहानियों के द्वारा बुद्धि आई और मैंने, जिस जगह जो शुल्क लगता है, देना शुरू किया यानी कि शुल्क देकर परामर्श किया (देने की आदत आई) शुल्क देकर ज्योतिष शास्त्र सीखा और अब मैं हमेशा दान पुण्य करती रहती हूं, हो सकता है उसके प्रभाव से आज मैं सुखी व संपन्न हूंक्योंकि मैं सीधी- सच्ची बात लिखती हूं, जो हो सकता है कुछ लोगों को बहुत अच्छी लगे और कुछ लोगों को इसके विपरीत इसलिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं सच्ची बात कहने के लिएईश्वर के दरबार में हम लोग भी भिखारी हैंअगर हम लोग अपनी आदतों में सुधार करें, तो निश्चित ही कहानी वाले भिखारी की तरह से हमारी झोली भी सोने/ पुरस्कार से भर जाएगी, मगर ध्यान रखिए अगर दो दाना देंगे, तो दो ही दाना प्राप्त होगाकण-कण देना, क्षण- क्षण देना, यह जीवन का अर्थ है।जो जैसे मन से देता है, वह उतना अधिक सामर्थ है ।।आप जो भी दोंगे, वही आपके पास लौटकर आएगा, स्वयं का अनुभव भी यही कहता है कि आप अगर बांटना सीख गए और जो भी शेयर किया उससे आप कभी खाली नही हो सकते।बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम: की किताबों और भी बहुत सी जगह हमने पढ़ा भी है कि देने से कोई चीज कभी घटती नहींमूल स्रोत: इस उत्तर का मूल स्रोत मेरे जीवन का अनुभव एवं स्वयं की विचार एवं मेरे द्वारा सीखी गई ज्योतिष विद्या है

क्या दान करने से पैसा बढ़ता ही है? By वनिता कासनियां पंजाब  , दान देने से कभी भी "कुछ" घटता नहीं है बल्कि बढ़ता ही है,  अब आप मेरी बात पर क्यों विश्वास करेंगे  इसलिए पहले मैं आपको  एक नहीं दो कहानी/दृष्टांत  सुनाऊंगी, जो दृष्टांत मैंने चित्र के रूप में यहां पर प्रस्तुत की है, उसे मैंने अपने मोबाइल कैमरे से खींच कर, यहां प्रस्तुत किया है  अतः  चित्र सोर्स  है मेरा मोबाइल फोन और उसकी गैलरी है "हमारे पास अभी जो भी धन है, उसे हमने पिछले जन्म में किए गए परमाथ कार्यों के पुण्यस्वरूप पाया है, परंतु अब हम पुरुषार्थरूपी पुण्यकार्य नहीं कर रहे हैं, इसलिए पिछले पुण्य समाप्त होते ही हमें भीख माननी पड़ेगी" क्योंकि यह कहानी भीख से समाप्त हुई है अतः एक भिखारी की दूसरी कहानी आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूं एक भिखारी ईश्वर से प्रार्थना करते हुए घर से निकला, कि  है ईश्वर आज मेरी पूरी झोली भिक्षा से भर दे , तभी उसे सामने से आता हुआ राजा दिखाई पड़ा.. ध्यान दें, जो बात में बताने जा रहा हूं वह ब्रह्मांड का रहस्य उस भिखारी को नहीं पता था और हम में से बहुत...

ध्यान से कैसे लायें मस्तिष्क में परिवर्तनसदियों से प्राचीन तिब्बती भिक्षु मन की शांति को प्राप्त करने के लिए ध्यान लगाया करते थे , और ये प्रचलन सिर्फ उन्ही की संस्कृति का हिस्सा नहीं है | आधुनिक शोधकर्ताओं को कई दशकों से ये पता है की ध्यान लगाने से एक व्यक्ति के तनाव को घटा कर , रक्तचाप को नीचे ला और उसके व्यव्हार को बदल कर उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर किया जा सकता है |पिछले कई सालों में मनोवैज्ञानिकों ने ध्यान के लाभ के अंतर्निहित मस्तिष्क की संरचना में हुए परिवर्तन को गंभीरता से लिया है| मुख्यतः उन्होनें अपनी शोध को दिमागी ध्यान पर केन्द्रित किया है | दिमागी ध्यान व्यक्तियों को अपना सारा ध्यान एक निश्चित अवधी, आम तौर पर १० या २० मिनट के लिए उनकी चेतना पर केन्द्रित करने की चुनौती देता है |कई शोधो ने इस बात की पुष्टि की है की ध्यान हिप्पोकैम्पस , दिमाग का वो हिस्सा जो भावनाओं को नियंत्रित करता है का घनत्व और मात्रा बढ़ाने में काफी सहायक होता है | हिप्पोकैम्पस को लम्बे समय तक याद के गठन से भी सम्बंधित माना जाता है |वैज्ञानिकों को ये भी पता चला की विशेषज्ञ साधक की मस्तिष्क की बाहरी सतह यानी कोर्टेक्स समय के साथ सिकुड़ जाती है | कोर्टेक्स की सिकुड़न हटाने से क्षेत्रफल बढ़ जाता है जिससे उस इलाके में दिमाग की पहुँच मज़बूत होती है | हम अपने अमूर्त विचारों और उच्च सोच की क्षमताओं के लिए कोर्टेक्स पर निर्भर करते हैं।ध्यान को ध्यान-काल कठिनाइयों प्रतिक्रिया चिंता को कम करने, और मस्तिष्क के सामान्य उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने में उपयोगी माना जाता है |ऐसे कई सबूत हैं जिनसे ये साबित होता है की ध्यान मस्तिष्क में कई सकरात्मक बदलाव लाता है , इसीलिए अब ध्यान लगाने का वक़्त है |

ध्यान से कैसे लायें मस्तिष्क में परिवर्तन सदियों से प्राचीन तिब्बती भिक्षु मन की शांति को प्राप्त करने के लिए ध्यान लगाया करते थे , और ये प्रचलन सिर्फ उन्ही की संस्कृति का हिस्सा नहीं है | आधुनिक शोधकर्ताओं को कई दशकों से ये पता है की ध्यान लगाने से एक व्यक्ति के तनाव को घटा कर , रक्तचाप को नीचे ला और उसके व्यव्हार को बदल कर उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर किया जा सकता है | पिछले कई सालों में मनोवैज्ञानिकों ने ध्यान के लाभ के अंतर्निहित मस्तिष्क की संरचना में हुए परिवर्तन को गंभीरता से लिया है| मुख्यतः उन्होनें अपनी शोध को दिमागी ध्यान पर केन्द्रित किया है | दिमागी ध्यान व्यक्तियों को अपना सारा ध्यान एक निश्चित अवधी, आम तौर पर १० या २० मिनट के लिए उनकी चेतना पर केन्द्रित करने की चुनौती देता है | कई शोधो ने इस बात की पुष्टि की है की ध्यान हिप्पोकैम्पस , दिमाग का वो हिस्सा जो भावनाओं को नियंत्रित करता है का घनत्व और मात्रा बढ़ाने में काफी सहायक होता है | हिप्पोकैम्पस को लम्बे समय तक याद के गठन से भी सम्बंधित माना जाता है | वैज्ञानिकों को ये भी पता चला की विशेषज्ञ साध...

ज्योति विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृत पति को कोसती-आप तो सिधार गए, मेरे लिए यह जंजाल छोड़ गए । जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किसलिए किया । घर में भूनी भॉँग नहीं, चले थे ब्याह करने ! वह चाहती तो दूसररी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-सुनने में भी बुरी न थी । दो-एक आदमी तैयार भी थे, लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे । अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती, वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर वह कहीं बैठ जाए, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन बच्चों के होते इसे यह क्या सूझी ।मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों-भैसों की सानी-पानी, दुहना- मथना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया, उसे यही गिला था । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया । न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आयी, मानो भट्टी में पड़ गई । उसकी वैधव्य-साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी । पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पॉँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गए ।उसी मुहल्ले में उसकी बिरादरी में, कितनी ही औरतें थीं, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी-सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं, इसलिए अब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर। वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनंद मिलता था । उसकी वंचित लालसा, जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे संभव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया बूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साँड़ बनने पर उतारू हो गया है ।मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा-कैसा साँड़! बात क्या है ?‘तू रूपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता? उस पर कहता है कैसा साँड़? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े रँगाए जाते है।’मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया—अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे, तो लाऊँगा ? अपनी धोती रँगने को दी, उससे रँगाई मांगता ?‘मुहल्ले में एक तू ही धन्नासेठ है! और किसी से उसने क्यों न कहा?’‘यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।’‘तुझे अब छैला बनने की सूझती है । घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’‘यहाँ पान किसके लिए लाता ?’‘क्या तेरे लिखे घर में सब मर गए ?’‘मैं न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।’‘संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?’‘शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।’बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे में उन साधनों का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दी । उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी चढ़ती जवानी थी । तीन बच्चे भगवान् ने उसके गले मढ़ दिए, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज वह भी ओठ लाल किए, पाँव में महावर लगाए, अनवट-बिछुए पहने मटकती फिरती । यह सब कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है! रुपिया उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, आैर बूटी बुढ़िया है!बोली-हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे चीथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बड़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती तो, तुम लोगों का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।मोहन ने डरते-डरते कहा—मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मा!‘कैसी बात ?’‘सगाई की।’‘अगर रुपिया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। राँड़ से इतना भी नहीं देखा जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।’मोहन ने व्यथित कंठ में कहा,अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जाएगी, तुम अकेली पड़ जाओगी । इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।‘तू आज से यहीं आँगन में सोया कर।’‘और गायें-भैंसें बाहर पड़ी रहेंगी ?’‘पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता।’‘मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?’‘हाँ !’‘तो मैं यहाँ न सोऊँगा।’‘तो निकल जा घर से।’‘हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा।’मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा-मुझे भूख नहीं है! बूटी उसे मनाने न आयी । मोहन का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा। रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर ही दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव वसंत की भाँति आकर उसे पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करना होता, पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या, दे दे कि वह प्रसन्न हो जाए! अब वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाए ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में केसी-कैसी बातें हुई थीं । मोहन ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाहक निकल आएँगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राण में बसा हुआ था-मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको । परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करो, तब भी मोहन हो । उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है!नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं है । वह रुपिनया के साथ माँ से अलग रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मुहल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है। कहीं अम्मां सुन पावें कि वह रात को रुपिया के द्वार पर गया था, तो परान ही दे दें। दे दें परान! अपने भाग तो नहीं बखानतीं कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है। न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है। वह जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है। बस, यही तो।चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। रुपिया आ रही है! हा; वही है।रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली-सो गए क्या मोहन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?मोहन नींद का मक्कर किए पड़ा रहा।रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा-क्या सो गए मोहन ?उन कोमाल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्घि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी वरदान के लिए सामने खड़ी है। सारा विश्व जैसे नाच रहा है। उसे मालूम हुआ जैसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह एक मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद में चिपटा हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।रुपिया ने कहा-अभी से सो गए क्या जी ?मोहन बोला-हाँ, जरा नींद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीं? कहीं अम्मा देख लें, तो मुझे मार ही डालें।‘तुम आज आये क्यों नहीं?’‘आज अम्माँ से लड़ाई हो गई।’‘क्या कहती थीं?’‘कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी।’‘तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्यों चिढ़ती हो ?’‘अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा? वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं। अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा।’मेरा जी तो न मानेगा।’‘ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा।’‘तुम मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ नहीं चाहती।’‘और अम्माँ जो बिगड़ेंगी।’‘तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार नहीं करते।‘मेरा बस होता, तो तुमको अपने परान में रख लेता।’इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई।2मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनंद का सागर-सा भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन आलसी था। घर के काम-धंधे में जी न लगाता था । मोहन को देखते ही वह साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा।मोहन ने मुस्कराकर कहा-धोती बहुत मैली हो गई है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं देते?सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गंध आई।‘धोबिन पैसे माँगती है।’‘तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?’‘अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ?’‘तो मुझसे ले लो!’यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी। सोहन प्रसन्न हो गया। भाई और माता दोनों ही उसे धिक्कारते रहते थे। बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला। इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चल।मोहन ने कहा-रहने दो, मैं इसे लिये जाता हूँ।सोहन ने पगहिया मोहन को देकर फिर पूछा-तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया था। इसमें क्या रहस्य है, यह मोहन की समझ में नहीं आया। बोला-आग हो तो रख आओ।मैना सिर के बाल खेले आँगन में बैठी घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते ही उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईधर में बरतन उठाने चली।मोहन ने पूछा-क्या खेल रही थी मैना ?मैना डरी हुई बोली-कुछ नहीं तो।‘तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। जरा बना, देखूँ।’मैना का रुआंसा चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्द में कितना जादू है! मुँह से निकलते ही जैसे सुगंध फैल गई। जिसने सुना, उसका हृदय खिल उठा। जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा। जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा। चारों ओर चेतनता दौड़ गई। कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं। मोहन का हृदय आज प्रेम से भरा हुआ है। उसमें सुगंध का विकर्षण हो रहा है।मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा-तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले।मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमाचम करके पानी ले जाएगी।‘अम्माँ पैसे नहीं देतीं। गुड्डा तो ठीक हो गया है। टीका कैसे भेजूँ?’‘कितने पैसे लेगी ?’‘एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग। जोड़े तो रँगे जाएँगे कि नहीं?’‘तो दो पैसे में तेरा काम चल जाएगा?’‘हाँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाए।’मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाए। मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। मोहन ने उसे गोद में उठा लिया। मैना ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी। फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता देने के लिए भागी।उसी वक्त बूटी गोबर का झाँवा लिये आ पहुंची। मोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली- अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है। भैंस कब दुही जाएगी?आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया। जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई सोता- सा खुल गया हो। माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झाँवा उसके सिर से उतार लिया।बूटी ने कहा-रहने दे, रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ।‘तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुजला लेतीं?’माता का हृदय वात्सल्य से गदगद हो उठा।‘तू जा अपना काम देखं मेरे पीछे क्यों पड़ता है!’‘गोबर निकालने का काम मेरा है।’‘और दूध कौन दुहेगा ?’‘वह भी मैं करूँगा !’‘तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !’‘जितना कहता हूँ, उतना कर लूँगा।’‘तो मैं क्या करूँगी ?’‘तुम लड़कों से काम लो, जो तुम्हारा धर्म है।’‘मेरी सुनता है कोई?’3आज मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, तो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और थोड़ी-सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़कर बोली-आज पैसे कहीं फालतू मिल गए थे क्या ? इस तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा?‘मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ। पहले मैं समझता था, तुम पान खातीं ही नहीं।‘तो अब मैं पान खाऊँगी !’‘हाँ, और क्या! जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ?’ बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आई, एक नन्ही-सी कोंपल थी; उसकेअंदर कितना रस था। उसने मैना और सोहन को एक-एक मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी।‘मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ।’‘और तू तो बूढ़ा हो गया, क्यों ?’‘इन लड़कों क सामने तो बूढ़ा ही हूँ।’‘लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है।’मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी। वह केवल मिठाई का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी। मोहन को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने आधा लड्डू तोड़कर मैना को दे दिया। एक मिठाई दोने में बची थी। बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा-लाया भी तो इतनी-सी मिठाई। यह ले ले।मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा-वह तुम्हारा हिस्सा है अम्मा।‘तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनंद मिलता है। उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है।’उसने आधी मिठाई सोहन और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी। आज जीवन में पहली बार उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में मिली। पानदान में कई कुल्हियाँ हैं। और देखो, दो छोटी- छोटी चिमचियाँ भी हैं; ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चाहो, लटकाकर ले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान रखे जाएँगे।ज्यों ही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारी काटी, पान को भिगोकर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बीड़े के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं कि इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाए। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें मुँह देखा। ओठों पर लाली है। मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही पान खाया है।धनिया ने आकर कहा-काकी, तनिक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है।कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव-भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बंद हुए कि नहीं धनिया ?धनिया ने उदास मन से कहा-नहीं काकी, आज तो दिन-भर दस्त आए। जाने दाँत आ रहे हैं।‘पानी भर ले तो चल जरा देखूँ, दाँत ही हैं कि कुछ और फसाद है। किसी की नजर-वजर तो नहीं लगी ?’‘अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो?’‘चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।’‘जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है। ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या कहूँ!’‘कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है।’‘ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगाएगा!’‘यही तो तू समझती नहीं। नजर आप ही लग जाती है।’धनिया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।‘तू अकेली है। आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा।’‘नहीं काकी, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।’ बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिया को उसने केवल तितली समझ रखा था। ‘रुपिया!’ ‘हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है। झाडू लगा देती है, चौका-बरतन कर देती है, लड़के को सँभालती है। गाढ़े समय कौन, किसी की बात पूछता है काकी !’‘उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी न मिलती होगी।’‘यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी! मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया। बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ, जब तक जीऊँगी, उसका जस गाऊँगी।’‘तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?’‘मैं इन बातो में नहीं पड़ती काकी! फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं चाहता ? खाने-पहनने की यही तो उमिर है।’धनिया ने बच्चे को खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रखा, पेट में धीरे- धीरे उँगली गड़ाकर देखा। नाभी पर हींग का लेप करने को कहा। रुपिया बेनिया लाकर उसे झलने लगी।बूटी ने कहा-ला बेनिया मुझे दे दे।‘मैं डुला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ?’‘तू दिन-भर यहाँ काम-धंधा करती है। थक गई होगी।’‘तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे, वह बिना गाली के बात नहीं करती। मारे डर के तुम्हारे पास न आयी।’बूटी मुस्कारायी।‘लोग झूठ तो नहीं कहते।’‘मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?’ कह तो दी होगी। दूसरी लड़की होती, तो मेरी ओर से मुंह फेर लेती। मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती। इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो। हो सकता हे कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हाँ, यही बात है।आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब करेगी? शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाती हों कि जरा इस दूकान की सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उनके रूप की बखान करें। किसे दूसरों की आँखों में छुप जाने की लालसा नहीं होती ? बूटी का यौवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है।उस दिन से रूपा प्राय: दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाए या बेरंगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती-बहू-बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है।रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ! लोगों को इशारा मिल जाए, तो भौंरों की तरह तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगें।बूटी ने मीठे तिरस्कार से कहा-चल, मैं तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ?‘अम्माँ तो बूढ़ी हो गई।’‘तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं?’‘हाँ ऐसा, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी।’बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से ददेखकर पूछा-अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूँ ?रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई।आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा-कुछ रुपये-पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ।

ज्योति विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृत पति को कोसती-आप तो सिधार गए, मेरे लिए यह जंजाल छोड़ गए । जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किसलिए किया । घर में भूनी भॉँग नहीं, चले थे ब्याह करने ! वह चाहती तो दूसररी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-सुनने में भी बुरी न थी । दो-एक आदमी तैयार भी थे, लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे । अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती, वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर वह कहीं बैठ जाए, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन बच्चों के होते इसे यह क्या सूझी । मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों-भैसों की सानी-पानी, दुहना- मथना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड...

आख़िरी तोहफ़ा सारे शहर में सिर्फ एक ऐसी दुकान थी, जहॉँ विलायती रेशमी साड़ी मिल सकती थीं। और सभी दुकानदारों ने विलायती कपड़े पर कांग्रेस की मुहर लगवायी थी। मगर अमरनाथ की प्रेमिका की फ़रमाइश थी, उसको पूरा करना जरुरी था। वह कई दिन तक शहर की दुकानोंका चक्कर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेकिन कहीं सफल-मनोरथ न हुए और उसके तक़ाजे बराबर बढ़ते जाते थे। होली आ रही थी। आख़िर वह होली के दिन कौन-सी साड़ी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जाहिर करना अमरनाथ के पुरुषोचित अभिमान के लिए कठिन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे तोड़ लाने के लिए भी तत्पर हो जाते। आख़िर जब कहीं मक़सद पूरा न हुआ, तो उन्होंने उसी खास दुकान पर जाने का इरादा कर लिया। उन्हें यह मालूम था कि दुकान पर धरना दिया जा रहा है। सुबह से शाम तक स्वयंसेवक तैनात रहते हैं और तमाशाइयों की भी हरदम खासी भीड़ रहती है। इसलिए उस दुकान में जाने के लिए एक विशेष प्रकार के नैतिक साहस की जरुरत थी और यह साहस अमरनाथ में जरुरत से कम था। पड़े-लिखे आदमी थे, राष्ट्रीय भावनाओं से भी अपरिचित न थे, यथाशक्ति स्वदेशी चीजें ही इस्तेमाल करते थे। मगर इस मामले में बहुत कट्टर न थे। स्वदेशी मिल जाय तो बेहतर वर्ना विदेशी ही सही- इस उसूल के मानने वाले थे। और खासकर जब उसकी फरमाइश थी तब तो कोई बचाव की सूरत ही न थी। अपनी जरुरतों को तो वह शायद कुछ दिनों के लिए टाल भी देते, मगर उसकी फरमाइश तो मौत की तरह अटल है। उससे मुक्ति कहां ! तय कर लिया कि आज साड़ी जरुर लायेंगे। कोई क्यों रोके? किसी को रोकने का क्या अधिकर हैं? माना स्वदेशी का इस्तेमाल अच्छी बात है लेकिन किसी को जबर्दस्ती करने का क्या हक़ है? अच्छी आजादी की लड़ाई है जिसमें व्यक्ति की आजादी का इतना बेदर्दी से खून हो !यों दिल को मजबूत करके वह शाम को दुकान पर पहुँचे। देखा तो पॉँच वालण्टियर पिकेटिंग कर रहे हैं और दुकान के सामने सड़क पर हज़ारों तमाशाई खड़े हैं। सोचने लगे, दुकान में कैसे जाएं। कई बार कलेजा मज़बूत किया और चले मगर बरामदे तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।संयोग से एक जान-पहचान के पण्डितजी मिल गये। उनसे पूछा—क्यों भाई, यह धरना कब तक रहेगा? शाम तो हो गयी।पण्डितजी ने कहा—इन सिरफिरों को सुबह और शाम से क्या मतलब, जब तक दुकान बन्द न हो जाएगी, यहां से न टलेंगे। कहिए, कुछ खरीदने को इरादा है? आप तो रेशमी कपड़ा नहीं खरीदते?अमरनाथ ने विवशता की मुद्रा बनाकर कहा—मैं तो नहीं खरीदता। मगर औरतों की फ़रमाइश को कैसे टालूँ।पण्डितजी ने मुस्कराकर कहा—वाह, इससे ज्यादा आसान तो कोई बात नहीं। औरतों को भी चकमा नहीं दे सकते? सौ हीले-हजार बहाने हैं।अमरनाथ—आप ही कोई हीला सोचिए।पण्डितजी—सोचना क्या है, यहॉँ रात-दिन यही किया करते हैं। सौ-पचास हीले हमेशा जेबों में पड़े रहते हैं। औरत ने कहा, हार बनवा दो। कहा, आज ही लो। दो-चार रोज़ के बाद कहा, सुनार माल लेकर चम्पत हो गया। यह तो रोज का धन्धा है भाई। औरतों का काम फ़रमाइश करना है, मर्दो का काम उसे खूबसूरती से टालना है।अमरनाथ—आप तो इस कला के पण्डित मालूम होते हैं !पण्डितजी—क्या करें भाई, आबरु तो बचानी ही पड़ती है। सूखा जवाब दें तो शर्मिदगी अलग हो, बिगड़ें वह अगल से, समझें, हमारी परवाह ही नहीं करते। आबरु का मामला हैं। आप एक काम कीजिए। यह तो आपने कहा ही होगा कि आजकल पिकेटिंग है?अमरनाथ—हां, यह तो बहाना कर चुका भाई, मगर वह सुनती ही नहीं, कहती है, क्या विलायती कपड़े दुनिया से उठ गये, मुझसे चले हो उड़ने!पण्डितजी—तो मालूम होता है, कोई धुन की पक्की औरत है। अच्छा तो मैं एक तरकीब बताऊँ। एक खाली कार्ड का बक्स ले लो, उसमें पुराने कपड़े जलाकर भर लो। जाकर कह देना, मैं कपड़े लिये आता था, वालण्टियरों ने छीनकर जला दिये। क्यों, कैसी रेहगी?अमरनाथ—कुछ जंचती नहीं। अजी, बीस एतराज़ करेंगी, कहीं पर्दाफ़ाश हो जाय तो मुफ्त की शर्मिदगी उठानी पड़े। पण्डितजी—तो मालूम हो गया, आप बोदे आदमी हैं और हैं भी आप कुछ ऐसे ही। यहॉँ तो कुछ इस शान से हीले करते हैं कि सच्चाई की भी उसके आगे धुल हो जाय। जिन्दगी यही बहाने करते गुजरी और कभी पकड़े न गये। एक तरकीब और है। इसी नमूने का देशी माल ले जाइए और कह दीजिए कि विलायती है।अमरनाथ—देशी और विलायती की पहचान उन्हें मुझसे और आपसे कहीं ज्यादा हैं। विलायती पर तो जल्द विालयती का यक़ीन आयेगा नहीं, देशी की तो बात ही क्या है !एक खद्दरपोश महाशय पास ही खड़े यह बातचीत सुन रहे थे, बोल उठे— ए साहब, सीधी-सी तो बात है, जाकर साफ़ कह दीजिए कि मैं विदेशी कपड़े न लाऊंगा। अगर जिद करे तो दिन-भर खाना न खाइये, आप सीधे रास्ते पर आ जायेगी।अमरनाथ ने उनकी तरफ कुछ ऐसी निगाहों से देखा जो कह रही थीं, आप इस कूचे को नहीं जानते और बोले—यह आप ही कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकता।खद्दरपोश—कर तो आप भी सकते हैं लेकिन करना नहीं चाहते। यहां तो उन लोगों में से हैं कि अगर विदेशी दुआ से मुक्ति भी मिलती हो तो उसे ठुकरा दें।अमरनाथ—तो शायद आप घर में पिकेटिंग करते होंगे?खद्दरपोश—पहले घर में करके तब बाहर करते हैं भाई साहब।खद्दरपोश साहब चले गये तो पण्डितजी बोले—यह महाशय तो तीसमारखां से भी तेज़ निकल। अच्छा तो एक काम कीजिए। इस दुकान के पिंछवाड़े एक दूसरा दरवाज़ा है, ज़रा अंधेरा हो जाय तो उधर चले जाइएगा, दायें-बायें किसी की तरफ़ न देखिएगा।अमरनाथ ने पण्डितजी को धन्यवाद दिया और जब अंधेरा हो गया तो दुकान के पिछवाड़े की तरफ जा पहुँचे। डर रहे थे, कहीं यहां भी घेरा न पड़ा हो। लेकिन मैदान खाली था। लपककर अन्दर गये, एक ऊंचे दामों की साड़ी ख़रीदी और बाहर निकले तो एक देवीजी केसरिया साड़ी पहने खड़ी थीं। उनको देखकर इनकी रुह फ़ना हो गयी, दरवाजे से बाहर पांव रखने की हिम्मत नीं हुई। एक तरफ़ देखकर तेजी से निकल पड़े और कोई सौ कदम भागते हुए चले गये। कम्र का लिखा, सामने से एक बुढ़िया लाठी टेकती चली आ रही थी। आप उससे लड़ गये। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी कोसने—अरे अभागे, यह जवानी बहुत दिन न रहेगी, आंखों में चर्बी छा गयी है, धक्के देता चलता है ! अमरनाथ उसकी खुशामद करने लगे—माफ करो, मुझे रात को कुछ कम दिखाई पड़ता है। ऐनक घर भूल आया। बुढ़िया का मिज़ाज ठण्डा हुआ, आगे बढ़ी और आप भी चले। एकाएक कानों में आवाज आयी, ‘बाबू साहब, जरा ठहरियेगा’ और वही केसरिया कपड़ोवाली देवीजी आती हुई दिखायी दीं।अमरनाथ के पांव बंध गये। इस तरह कलेजा मजबूत करके खड़े हो गये जैसे कोई स्कूली लड़का मास्टर की बेंत के सामने खड़ा होता है।देवीजी ने पास आकर कहा—आप तो ऐसे भागे कि मैं जैसे आपको काट खाऊँगी। आप जब पढ़े-लिखे आदमी होकर अपना धर्म नहीं समझते तो दुख होता है। देश की क्या हालत है, लोगों को खद्दर नहीं मिलता, आप रेशमी साड़ियां खरीद रहे हैं !अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा—मैं सच कहता हूँ देवीजी, मैंने अपने लिए नहीं खरीदी, एक साहब की फ़रमाइश थीं देवीजी ने झोली से एक चूड़ी लिकालकर उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा—ऐसे हीले रोज़ ही सुना करती हूँ। या तो आप उसे वापस कर दीजिए या लाइए हाथ मैं चूड़ी पहना दूँ।अमरनाथ—शौक से पहना दीजिए। मैं उसे बड़े गर्व से पहनूँगा। चूड़ी उस बलिदान का चिह्न है जो देवियों के जीवन की विशेषता है। चूड़ियां उन देवियों के हाथ में थीं जिनके नाम सुनकर आज भी हम आदर से सिर झुकाते हैं। मैं तो उसे शर्म की बात नहीं समझता। आप अगर और कोई चीज पहनाना चाहें तो वह भी शौक़ से पहना दीजिए। नारी पूजा की वस्तु है, उपेक्षा की नहीं। अगर स्त्री, जो क़ौम को पैदा करती हैं, चूड़ी पहनना अपने लिए गौरव की बात समझती है तो मर्दो के लिए चूड़ी पहनाना क्यों शर्म की बात हो?देवीजी को उनकी इस निर्लज्जता पर आश्चर्य हुआ मगर वह इतनी आसानी से अमरनाथ को छोड़नेवाली न थीं। बोलीं—आप बातों के शेर मालूम होते हैं। अगर आप हृदय से स्त्री को पूजा की वस्तु मानते हैं, तो मेरी यह विनती क्यों नहीं मान जाते?अमरनाथ-इसलिए कि यह साड़ी भी एक स्त्री की फरमाइश है।देवी-अच्छा चलिए, मैं आपके साथ चलूँगी, जरा देखूँ आपकी देवी जी किस स्वभाव की स्त्री हैं।अमरनाथ का दिल बैठ गया। बेचारा अभी तक बिना-ब्याहा था, इसलिए नहीं कि उसकी शादी न होती थी बल्कि इसलिए कि शादी को वह एक आजीवन कारावास समझता था। मगर वह आदमी रसिक स्वभाव के थे। शादी से अलग रहकर भी शादी के मजों से अपिरचित न थे। किसी ऐसे प्राणी की जरूरत उनके लिए अनिवार्य थी जिस पर वह अपने प्रेम को समर्पित कर सकें, जिसकी तरावट से वह अपनी रूखी-सूखी जिन्दगी को तरो-ताज़ा कर सकें, जिसके प्रेम की छाया में वह जरा देर के लिए ठण्डक पा सकें, जिसके दिल मे वह अपनी उमड़ी हुई जवानी की भावनाओं को बिखेरकर उनका उगना देख सकें। उनकी नज़र ने मालती को चुना था जिसकी शहर में घूम थी। इधर डेढ़-दो साल से वह इसी खलिहान के दाने चुना करते थे। देवीजी के आग्रह ने उन्हें थोड़ी देर के लिए उलझन में डाल दिया था। ऐसी शर्मिंदगी उन्हें जिन्दगी में कभी न हुई थी। बोले-आज तो वह एक न्योते में गई हैं, घर में न होंगी। देवीजी ने अविश्वास से हंसकर कहा-तो मैं समझ यह आपकी देवीजी का कुसूर नहीं, आपका कुसूर है। अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा-मैं आपसे सच कहता हूँ, आज वह घर पर नहीं।देवी ने कहा-कल आ जाएंगी?अमरनाथ बोले-हां, कल आ जाएंगी।देवी-तो आप यह साड़ी मुझे दे दीजिए और कल यहीं आ जाइएगा, मैं आपके साथ चलूँगी। मेरे साथ दो-चार बहनें भी होंगी।२अमरनाथ ने बिना किसी आपत्ति के वह साड़ी देवीजी को दे दी और बोले-बहुत अच्छा, मैं कल आ जाऊँगा। मगर क्या आपको मुझ पर विश्वास नहीं है जो साड़ी की जमानत जरूरी है?देवीजी ने मुस्कराकर कहा-सच्ची बात तो यही है कि मुझे आप पर विश्वास नहीं।अमरनाथ ने स्वाभिमानपूर्वक कहा- अच्छी बात है, आप इसे ले जाएं।देवी ने क्षण-भर बाद कहा-शायद आपको बुरा लग रहा हो कि कहीं साड़ी गुम न हो जाए। इसे आप लेते जाइए, मगर कल आइए जरूर।अमरनाथ स्वाभिमान के मारे बगैर कुछ कहे घर की तरफ चल दिये, देवीजी ‘लेते जाइए लेते जाइए’ करती रह गयीं।अमरनाथ घर न जाकर एक खद्दर की दुकान पर गये और दो सूटों का खद्दर खरीदा। फिर अपने दर्जी के पास ले जाकर बोले-खलीफा, इसे रातों-रात तैयार कर दो, मुहंमागी सिलाई दूंगा।दर्जी ने कहा-बाबू साहब , आजकल तो होली की भीड़ है। होली से पहले तैयार न हो सकेंगे।अमरनाथ ने आग्रह करते हुए कहा-मैं मुंहमांगी सिलाई दूंगा, मगर कल दोपहर तक मिल जाए। मुझे कल एक जगह जाना है। अगर दोपहर तक न मिले तो फिर मेरे किस काम के न होंगे।दर्जी ने आधी सिलाई पेशगी ले ली और कल तैयार कर देने का वादा किया।अमरनाथ यहां से आश्वस्त होकर मालती की तरफ चले। क़दम आगे बढ़ते थे लेकिन दिल पीछे रहा जाता था। काश, वह उनकी इतनी विनती स्वीकार कर ले कि कल दो घण्टे के लिए उनके वीरान घर को रोशन करे! लेकिन यकीनन वह उन्हें खाली हाथ देखकर मुहं फेर लेगी, सीधे मुहं बात नहीं करेगी, आने का जिक्र ही क्या। एक ही बेमुरौवत है। तो कल आकर देवीजी से अपनी सारी शर्मनाक कहानी बयान कर दूँ? उस भोले चेहरे की निस्स्वार्थ उंमग उनके दिल में एक हलचल पैदा कर रही थी। उन आंखों में कितनी गंभीरता थी, कितनी सच्ची सहानुभूति, कितनी पवित्रता! उसके सीधे-सादे शब्दों में कर्म की ऐसी प्रेरणा थी, कि अमरनाथ का अपने इन्द्रिय-परायण जीवन पर शर्म आ रही थी। अब तक कांच के टुकड़े को हीरा समझकर सीने से लगाये हुए थे। आज उन्हें मालूम हुआ हीरा किसे कहते हैं। उसके सामने वह टुकड़ा तुच्छ मालूम हो रहा था। मालती की वह जादू-भरी चित्तवन, उसकी वह मीठी अदाएं, उसकी शोखियां और नखरे सब जैसे मुलम्मा उड़ जाने के बाद अपनी असली सूरत में नजर आ रहे थे और अमरनाथ के दिल में नफरत पैदा कर रहे थे। वह मालती की तरफ जा रहे थे, उसके दर्शन के लिए नहीं, बल्कि उसके हाथों से अपना दिल छीन लेने के लिए। प्रेम का भिखारी आज अपने भीतर एक विचित्र अनिच्छा का अनुभव कर रहा था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि अब तक वह क्यों इतना बेखबर था। वह तिलिस्म जो मालती ने वर्षों के नाज-नखरे, हाव-भाव से बांधा था, आज किसी छू-मन्तर से तार-तार हो गया था।मालती ने उन्हें खाली हाथ देखकर त्योरियां चढ़ाते हुए कहा-साड़ी लाये या नहीं?अमरनाथ ने उदासीनता के ढंग से जवाब दिया-नहीं।मालती ने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा-नही! वह उनके मुंह से यह शब्द सुनने की आदी न थी। यहां उसने सम्पूर्ण समर्पण पाया था। उसका इशारा अमरनाथ के लिए भाग्य-लिपि के समान था। बोली-क्यों?अमरनाथ- क्यों नहीं, नहीं लाये।मालती- बाजार में मिली न होगी। तुम्हें क्यों मिलने लगी, और मेरे लिए।अमरनाथ-नहीं साहब, मिली मगर लाया नहीं।मालती-आख़िर कोई वजह? रुपये मुझसे ले जाते।अमरनाथ-तुम खामख़ाह जलाती हो। तुम्हारे लिए जान देने को मैं हाज़िर रहा। मालती-तो शायद तुम्हें रुपये जान से भी ज्यादा प्यारे हों?अमरनाथ-तुम मुझे बैठने दोगी या नहीं? अमर मेरी सूरत से नफरत हो तो चला जाऊँ!मालती-तुम्हें आज हो क्या गया है, तुम तो इतने तेज मिजाज के न थे?अमरनाथ-तुम बातें ही ऐसी कर रही हो।मालती-तो आखिर मेरी चीज़ क्यों नहीं लाये?अमरनाथ ने उसकी तरफ़ बड़े वीर-भाव के साथ देखकर कहा-दुकान पर गया, जिल्लत उठायी और साड़ी लेकर चला तो एक औरत ने छीन ली। मैंने कहा, मेरी बीवी की फ़रमाइश है तो बोली-मैं उन्हीं को दूंगी, कल तुम्हारे घर आऊँगी।मालती ने शरारत-भरी नज़रों से देखते हुए कहा-तो यह कहिए आप दिल हथेली पर लिये फिर रहे थे। एक औरत को देखा और उसके कदमों पर चढ़ा दिया!अमरनाथ-वह उन औरतों में नहीं, जो दिलों की घात में रहती हैं।मालती-तो कोई देवी होगी?अमरनाथ-मै उसे देवी ही समझता हूँ।मालती-तो आप उस देवी की पूजा कीजिएगा?अमरनाथ-मुझ जैसे आवारा नौजवान के लिए उस मन्दिर के दरवाजे बन्द हैं।मालती-बहुत सुन्दर होगी?अमरनाथ-न सुन्दर है, न रूपवाली, न ऐसी अदाएं कुछ, न मधुर भाषिणी, न तन्वंगी। बिलकुल एक मामूली मासूम लड़की है। लेकिन जब मेरे हाथ से उसने साड़ी छीन ली तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरी गैरत ने तो गवारा न किया कि उसके हाथ से साड़ी छीन लूँ। तुम्हीं इन्साफ करो, वह दिल में क्या कहती?मालती-तो तुम्हें इसकी ज्यादा परवाह है कि वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं क्या कहूँगी, इसकी जरा भी परवाह न थी! मेरे हाथ से कोई मर्द मेरी कोई चीज़ छीन ले तो देखूं, चाहे वह दूसरा कामदेव ही क्यों न हो।अमरनाथ-अब इसे चाहे मेरी कायरता समझो, चाहे हिम्मत की कमी, चाहे शराफ़त, मैं उसके हाथ से न छीन सका।मालती-तो कल वह साड़ी लेकर आयेगी, क्यों?अमरनाथ-जरूर आयेगी।मालती-तो जाकर मुंह धो आओ। तुम इतने नादान हो, यह मुझे मालूम न था। साड़ी देकर चले आये, अब कल वह आपको देने आयेगी! कुछ भंग तो नहीं खा गये!अमरनाथ-खैर, इसका इम्तहान कल ही हो जाएगा, अभी से क्यों बदगुमानी करती हो। तुम शाम को ज़रा देर के लिए मेरे घर तक चली चलना।मालती-जिससे आप कहें कि यह मेरी बीवी है!अमरनाथ-मुझे क्या खबर थी कि वह मेरे घर आने के लिए तैयार हो जाएगी, नहीं तो और कोई बहाना कर देता।मालती-तो आपकी साड़ी आपको मुबारक हो, मैं नहीं जाती।अमरनाथ-मैं तो रोज तुम्हारे घर आता हूँ, तुम एक दिन के लिए भी नहीं चल सकतीं?मालती ने निष्ठुरता से कहा-अगर मौक़ा आ जाए तो तुम अपने को मेरा शौहर कहलाना पसन्द करोगे? दिल पर हाथ रखकर कहना।अमरनाथ दिल में कट गये, बात बनाते हुए बोले-मालती, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो। बुरा न मानना, मेरे व तुम्हारे बीच प्यार और मुहब्बत दिखलाने के बावजूद एक दूरी का पर्दा पड़ा था। हम दोनों एक-दूसरे की हालत को समझते थे और इस पर्दे का हटाने की कोशिश न करते थे। यह पर्दा हमारे सम्बन्धों की अनिवार्य शर्त था। हमारे बीच एक व्यापारिक समझौता-सा हो गया। हम दोनों उसकी गहराई में जाते हुए डरते थे। नहीं,बल्कि मैं डरता था और तुम जान-बूझकर न जाना चाहती थी। अगर मुझे विश्वास हो जाता कि तुम्हें जीवन-सहचरी बनाकर मैं वह सब कुछ पा जाऊँगा जिसका मैं अपने को अधिकारी समझता हूँ तो मैं अब तक कभी का तुमसे इसकी याचना कर चुका होता! लेकिन तुमने कभी मेरे दिल में यह विश्वास पैदा करने की परवाह न की। मेरे बारे में तुम्हें यह शक है, मैं नहीं कह सकता, तुम्हें यह शक करने का मैं ने कोई मौक़ा नहीं दिया और मैं कह सकता हूँ कि मैं उससे कहीं बेहतर शौहर बन सकता हूँ जितनी तुम बीवी बन सकती हो। मेरे लिए सिर्फ़ एतवार की जरूरत है और तुम्हारे लिए ज्यादा वज़नी और ज्यादा भौतिक चीज़ों की। मेरी स्थायी आमदनी पॉँच सौ से ज्यादा नहीं, तुमको इतने में सन्तोष न होगा। मेरे लिए सिर्फ इस इत्मीनान की जरूरत है कि तुम मेरी और सिर्फ मेरी हो। बोलो मंजूर है।मालती को अमरनाथ पर रहम आ गया। उसकी बातों में जो सच्चाई भरी हुई थी, उससे वह इनकार न कर सकी। उसे यह भी यकीन हो गया कि अमरनाथ की वफ़ा के पैर डगमगायेंगे नहीं। उसे अपने ऊपर इतना भरोसा था कि वह उसे रस्सी से मजबूत जकड़ सकती है, लेकिन खुद जकड़े जाने पर वह अपने को तैयार न कर सकी। उसकी जिन्दगी मुहब्बत की बाजीगरी में, प्रेम के प्रदर्शन में गुजरी थी। वह कभी इस, कभी उस शाख में चहकती फिरती थी, बैकेद, आजाद, बेबन्द। क्या वह चिड़िया पिंजरे में बन्द रह सकती है जिसकी जबान तरह-तरह के मजों की आदी हो गयी हो? क्या वह सूखी रोटी से तृप्त हो सकती है? इस अनुभूति ने उसे पिघला दिया। बोली-आज तुम बड़ा ज्ञान बघार रहे हो?अमरनाथ-मैंने तो केवल यथार्थ कहा है।मालती-अच्छा मैं कल चलूँगी, मगर एक घण्टे से ज्यादा वहां न रहूँगी।अमरनाथ का दिल शुक्रिये से भर उठा। बोला-मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ मालती। अब मेरी आबरू बच जायेगी। नहीं तो मेरे लिए घर से निकलना मुश्किल हो जाता है। अब देखना यह है कि तुम अपना पार्ट कितनी खूबसूरती से अदा करती हो।मालती-उसकी तरफ़ से तुम इत्मीनान रखो। ब्याह नहीं किया मगर बरातें देखी हैं। मगर मैं डरती हूँ कहीं तुम मुझसे दगा न कर रहे हो। मर्दों का क्या एतबार।अमरनाथ ने निश्चल भाव से कहा-नहीं मालती, तुम्हारा सन्देह निराधार है। अगर यह जंजीर पैरों में डालने की इच्छा होती तो कभी का डाल चुका होता। फिर मुझ-से वासना के बन्दों का वहां गुज़र हीं कहां।३दूसरे दिन अमरनाथ दस बजे ही दर्जी की दुकान पर जा पहुँचे और सिर पर सवार होकर कपड़े तैयार कराये। फिर घर आकर नये कपड़े पहने और मालती को बुलाने चले। वहां देर हो गयी। उसने ऐसा तनाव-सिंगार किया कि जैसे आज बहुत बड़ा मोर्चा जितना है।अमरनाथ ने कहा-वह ऐसी सुन्दरी नहीं है जो तुम इतनी तैयारियॉँ कर रही हो।मालती ने बालों में कंघी करते हुए कहा-तुम इन बातों को नहीं समझ सकते, चुपचाप बैठे रहो।अमरनाथ-लेकिन देर जो हो रही है।मालती-कोई बात नहीं।भय की उस सहज आशंका ने, जो स्त्रियों की विशेषता है, मालती को और भी अधिक सर्तक कर दिया था। अब तक उसने कभी अमरनाथ की ओर विशेष रूप से कोई कृपा न की थी। वह उससे काफी उदासीनता का बर्ताव करती थी। लेकिन कल अमरनाथ की भंगिमा से उसे एक संकट की सूचना मिल चुकी थी और वह उस संकट का अपनी पूरी शक्ति से मुकाबला करना चाहती थी। शत्रु को तुच्छ और अपदार्थ समझना स्त्रियों क लिए कठिन है। आज अमरनाथ को अपने हाथ से निकलते वह अपनी पकड़ को मजबूत कर रही थी। अगर इस तरह की उसकी चीजें एक-एक करके निकल गयीं तो फिर वह अपनी प्रतिष्ठा कब तक बनाये रख सकेगी? जिस चीज पर उसका क़ब्जा है उसकी तरफ़ कोई आंख ही क्यों उठाये। राजा भी तो एक-एक अंगुल जमीन के पीछे जान देता है। वह इस नये शिकारी को हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटा देना चाहती थी। उसके जादू को तोड़ देना चाहती थी।शाम को वह परी जैसी, अपनी नौकरानी और नौकर को साथ लेकर अमरनाथ के घर चली। अमरनाथ ने सुबह दस बजे तक मर्दाने घर को जनानेपन का रंग देने में खर्चा किया था। ऐसी तैयारियां कर रखी थीं जैसे कोई अफ़सर मुआइना करने वाला हो। मालती ने घर में पैर रखा तो उसकी सफ़ाई और सजावट देखकर बहुत खुश हुई। जनाने हिस्से में कई कुर्सियां रखी थीं। बोली-अब लाओ अपनी देवीजी को मगर जल्द आना। वर्ना मैं चली जाऊँगी।अमरनाथ लपके हुए विलायती दुकान पर गये। आज भी धरना था। तमाशाइयों की वहीं भीड़। वहां देवी जी नहीं। पीछे की तरफ़ गये तो देवी जी एक लड़की के साथ उसी भेस में खड़ी थीं।अमरनाथ ने कहा-माफ़ कीजिएगा, मुझे देर हो गयी। मैं आपके वादे की याद दिलाने आया हूँ।देवीजी ने कहा-मैं तो आपका इन्तजार कर रही थी। चलो सुमित्रा, जरा आपके घर हो आयें। कितनी देर है?अमरनाथ-बहुत पास है। एक तांगा कर लूंगा।पन्द्रह मिनट में अमरनाथ दोनों को लिये घर पहुँचे। मालती ने देवीजी को देखा और देवीजी ने मालती को। एक किसी रईस का महल था, आलीशान; दूसरी किसी फ़कीर की कुटिया थी, छोटी-सी तुच्छ। रईस के महल में आडम्बर और प्रदर्शन था, फ़कीर की कुटिया में सादगी और सफ़ाई। मालती ने देखा, भोली लड़की है जिसे किसी तरह सुन्दर नहीं कह सकते। पर उसके भोलेपन और सादगी में जो आकर्षण था, उससे वह प्रभावित हुए बिना न रह सकी। देवीजी ने भी देखा, एक बनी-संवरी बेधड़क और घमण्डी औरत है जो किसी न किसी वजह से उस घर में अजनबी-सी मालूम हो रही है जैसे कोई जंगली जानवर पिंजरे में आ गया हो।अमरनाथ सिर झुकाये मुजरिमों की तरह खड़े थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि किसी तरह आज पर्दा रह जाये। देवी ने आते ही कहा-बहन, आप भी सिर से पांव तक विदेशी कपड़े पहने हुई हैं?मालती ने अमरनाथ की तरफ़ देखकर कहा-मैं विदेशी और देशी के फेर में नहीं पड़ती। जो यह लाकर देते हैं वह पहनती हूँ। लाने वाले है ये, मैं थोड़े ही बाजार जाती हूँ।देवी ने शिकायत-भरी आंखों से अमरनाथ की तरफ देखकर कहा-आप तो कहते थे यह इनकी फरमाइश है, मगर आप ही का क़सूर निकल आया।मालती-मेरे सामने इनसे कुछ मत कहो। तुम बाजार में भी दूसरे मर्दों से बातें कर सकती हो, जब वह बाहर चले जायं तो जितना चाहे कह-सुन लेना। मैं अपने कानों से नहीं सुनना चाहती।देवीजी-मैं कुछ कहती नहीं और बहनजी, मैं कह ही क्या कर सकती हूँ, कोई जबर्दस्ती तो है नहीं, बस विनती कर सकता हूँ।मालती-इसका मतलब यह है कि इन्हें अपने देश की भलाई का जरा भी ख्याल नहीं, उसका ठेका तुम्हीं ने ले लिया है। पढ़े-लिखे आदमी हैं, दस आदमी इज्ज़त करते हैं, अपना नफा-नुकसान समझ सकते हैं। तुम्हारी क्या हिम्मत कि उन्हें उपदेश देने बैठो, या सबसे ज्यादा अक्लमन्द तुम्हीं हो?देवीजी-आप मेरा मतलब गलत समझ रही हैं बहन।मालती-हॉँ, गलत तो समझूँगी ही, इतनी अक्ल कहां से लाऊँ कि आपकी बातों का मतलब समझूँ! खद्दर की साड़ी पहल ली, झोली लटका ली, एक बिल्ला लगा लिया, बस अब अख्तियार है जहां चाहें आयें-जायें, जिससे चाहें हसें-बोलें, घर में कोई पूछता नहीं तो जेलखाने का भी क्या डर! मैं इसे हुड़दंगापन समझती हूँ, जो शरीफों की बहू-बेटियों को शोभा नहीं देता।अमरनाथ दिल में कटे जा रहे थे। छिपने के लिए बिल ढूंढ रहे थे। देवी की पेशानी पर जरा बल न था लेकिन आंखें डबडबा रही थीं।अमरनाथ ने मालती से जरा तेज स्वर में कहा-क्यों खामखाह किसी का दिल दुखाती हो? यह देवियां अपना ऐश-आराम छोड़कर यह काम कर रही हैं, क्या तुम्हें इसकी बिलकुल खबर नहीं?मालती-रहने दो, बहुत तारीफ़ न करो। जमाने का रंग ही बदला जा रहा है, मैं क्या करूँगी और तुम क्या करोगे। तुम मर्दों ने औरतों को घर में इतनी बुरी तरह कैद किया कि आज वे रस्म-रिवाज, शर्म-हया को छोड़कर निकल आयी हैं और कुछ दिनों में तुम लोगों की हुकूमत का खातमा हुआ जाता है। विलायती और विदेशी तो दिखलाने के लिए हैं, असल में यह आजादी की ख्वाहिश है जो तुम्हें हासिल है। तुम अगर दो-चार शादियॉँ कर सकते हो तो औरत क्यों न करें! सच्ची बात यह है, अगर आंखें है तो अब खोलकर देखो। मुझे वह आजादी न चाहिए। यहां तो लाज ढोते हैं और मैं शर्म-हया को अपना सिंगार समझती हूँ।देवीजी ने अमरनाथ की तरफ फ़रियाद की आंखों से देखकर कहा-बहन ने औरतों को जलील करने की क़सम खा ली है। मैं बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर आयी थी, मगर शायद यहां से नाकाम जाना पड़ेगा।अमरनाथ ने वह साड़ी उसको देते हुए कहा-नहीं, बिलकुल नाकाम तो आप नहीं जायेंगी, हां, जैसी कामयाबी की आपको उम्मीद थी वह न होगी।मालती ने डपटते हुए कहा-वह मेरी साड़ी है, तुम उसे नहीं दे सकते।अमरनाथ ने शर्मिंन्दा होते हुए कहा-अच्छी बात है, न दूंगा। देवीजी, ऐसी हालत में तो शायद आप मुझे माफ करेंगी। देवीजी चली गयी तो अमरनाथ ने त्योरियॉँ बदलकर कहा-यह तुमने आज मेरे मुंह में कालिख लगा दी। तुम इतनी बदतमीज और बदजबान हो, मुझे मालूम न था।मालती ने रोषपूर्ण स्वर में कहा-तो अपनी साड़ी उसे दे देती? मैंने ऐसी कच्ची गोलियां नहीं खेली। अब तो बदतमीज भी हूँ, बदज़बान भी, उस दिन इन बुराइयों में से एक भी न थी जब मेरी जूतियां सीधी करते थे? इस छोकरी ने मोहिनी डाल दी। जैसी रूह वैसे फरिश्ते। मुबारक हो।यह कहती हुई मालती बाहर निकली। उसने समझा था जबान चलाकर और ताक़त से वह उस लड़की को उखाड़ फेंकेगी लेकिन जब मालूम हुआ कि अमरनाथ आसानी से क़ाबू में आने वाला नहीं तो उसने फटकार बताई। इन दामों अगर अमरनाथ मिल सकता था तो बुरा न था। उससे ज्यादा कीमत वह उसके लिए दे न सकती थी।अमरनाथ उसके साथ दरवाजे तक आये जब वह तांगे पर बैठी तो बिनती करते हुए बोले-यह साड़ी दे दो न मालती, मैं तुम्हें कल इससे अच्छी साड़ी ला दूँगा।मगर मालती ने रूखेपन से कहा-यह साड़ी तो अब लाख रुपये पर भी नहीं दे सकती।अमरनाथ ने त्यौरियां बदलकर जवाब दिया-अच्छी बात है, ले जाओ मगर समझ लो यह मेरा आखिरी तोहफ़ा है।मालती ने होंठ चढ़ाकर कहा-इसकी परवाह नहीं। तुम्हारे बगैर मैं मर नहीं जाऊँगी, इसका तुम्हें यकीन दिलाती हूँ!

आख़िरी तोहफ़ा सारे शहर में सिर्फ एक ऐसी दुकान थी, जहॉँ विलायती रेशमी साड़ी मिल सकती थीं। और सभी दुकानदारों ने विलायती कपड़े पर कांग्रेस की मुहर लगवायी थी। मगर अमरनाथ की प्रेमिका की फ़रमाइश थी, उसको पूरा करना जरुरी था। वह कई दिन तक शहर की दुकानोंका चक्कर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेकिन कहीं सफल-मनोरथ न हुए और उसके तक़ाजे बराबर बढ़ते जाते थे। होली आ रही थी। आख़िर वह होली के दिन कौन-सी साड़ी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जाहिर करना अमरनाथ के पुरुषोचित अभिमान के लिए कठिन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे तोड़ लाने के लिए भी तत्पर हो जाते। आख़िर जब कहीं मक़सद पूरा न हुआ, तो उन्होंने उसी खास दुकान पर जाने का इरादा कर लिया। उन्हें यह मालूम था कि दुकान पर धरना दिया जा रहा है। सुबह से शाम तक स्वयंसेवक तैनात रहते हैं और तमाशाइयों की भी हरदम खासी भीड़ रहती है। इसलिए उस दुकान में जाने के लिए एक विशेष प्रकार के नैतिक साहस की जरुरत थी और यह साहस अमरनाथ में जरुरत से कम था। पड़े-लिखे आदमी थे, राष्ट्रीय भावनाओं से भी अपरिचित न थे, यथाशक्ति स्वदेशी चीजें ही इस्तेमाल करते थे। मगर इस मा...