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मधुर स्वेरा Good mornnig कनिका ने धीरे से ट्रंक खोला और सामान लगाने लगी। वह अब यहाँ नहीं रहना चाहती थी क्योंकि बहू के साथ उसके विचार नहीं मिलते थे। बात -बात पर वह घर से बाहर निकालने की धमकी देकर कनिका को चुप करा देती थी पर अब बस बहुत हुआ। उसने सोच लिया था कि वह वृद्धाश्रम में रहेगी। यह रोज़ रोज़ का अपमान उसके लिए असह्य था। एक कांच का ग्लास ही तो टूटा था उससे और निहारिका ने बिना सोचे समझे कितना बुरा भला कह दिया था। वह भावुक हो उठी और भीगी पलकों में आँसू छुपाये करीने से ट्रंक में अपना सामान लगाने लगी। उसने काँपते हाथों से कुणाल और अपनी तस्वीर हाथ में उठाई तो पलकों पर रुके अश्रु टपक गए। अपनी धोती के पल्लू से तस्वीर को साफ़ करते हुए वह कुणाल को निहारने लगी। उसे अपनी और कुणाल की प्रथम मुलाक़ात स्मरण हो आई जब कुणाल अपने माता पिता के साथ उसे देखने आये थे। देखते ही उसकी सुंदरता पर रीझ कर शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। उनके आकर्षण से वह भी अछूती नहीं रह सकी थी। कुणाल का आयात निर्यात का कार्य था और घर में उसके कदम रखते ही व्यापार बुलंदियों को छूने लगा था। धीरे धीरे कुणाल की गिनती अव्वल दर्जे के व्यापारियों में होने लगी थी। कुणाल के भरपूर प्रेम ने कनिका के जीवन में खुशहाली भर दी थी। उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे परन्तु उसे क्या पता था कि ये खुशियाँ शीघ्र ही बिखर जाएँगी। सहसा व्यापार में घाटा होने के कारण कुणाल को दिल का दौरा पड़ा और वह चल बसा। कनिका का जीवन वीरान हो गया। एक महीने तक तो उसे अपने जीवन की सुध ही नहीं थी। वह दिन रात रोती रहती थी ,स्वयं को असह्य समझती थी। छोटी छोटी बातों पर उसे कुणाल के न होने का आभास होता था। कुणाल की मृत्यु की कानूनी कार्यवाही शुरू हुई तो कदम कदम पर उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ी। इस कानूनी कार्यवाही में उसे कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़े। इस भाग दौड़ ने उसे पूर्ण रूप से सशक्त बना दिया था।यहाँ उसकी सद्बुद्धि और उच्च शिक्षा ने ही साथ दिया था। कई दिन का परिश्रम रंग लाया और कानूनी तौर तरीकों के सिलसिले से छुट्टी प्राप्त हुई। उस दिन वह थकी हारी घर पहुँची और हाथ मुँह धो कर चाय पीने की इच्छा से शक्कर का डब्बा खोला तो पाया कि शक्कर समाप्त हो गई थी। उसने बेटे समीर से पड़ोस के निरंजन बाबू के घर से शक्कर मंगवाने का सोचा परन्तु बेटे को स्कूल के कार्य में मग्न देख स्वयं ही जाने का निर्णय लिया। शक्कर से भरी कटोरी कनिका को पकड़ाते हुए निरंजन ने उसका हाथ धीरे से दबाते हुए कहा ,”कनिका जी कभी भी कोई आवश्यकता हो तो निःसंकोच मदद लीजियेगा ,मै आपकी मदद के लिए सदा तत्पर हूँ। “कनिका तभी समझ गई कि निरंजन की बातों में अपनत्व होते हुए भी इरादों में पवित्रता नहीं है। कनिका को निरंजन की आँखों में वासना नज़र आयी थी। उसका मन हुआ कि वह अभी निरंजन के मुँह पर झापड़ मार दे। कुणाल के होते हुए भी कई बार निरंजन ने उसका रास्ता रोकने का प्रयत्न किया था पर उस वक्त उसने ध्यान नहीं दिया था। उसे लगता था कि भ्रम है उसका परन्तु अब जब कुणाल नहीं है तब निरंजन का इस तरह पेश आना उसे अच्छा नहीं लगा था। वह जानती थी कि समाज में निरंजन जैसे लोग उपस्थित हैं और उसे ऐसे लोगों से सतर्क रहना चाहिए।उसने मन ही मन फैसला लिया कि चाहे जो हो जाए आज के बाद वह कभी निरंजन से मदद नहीं लेगी। संभवतः निरंजन बाबू के गलत व्यवहार ने ही उसे बाध्य किया था जो वह नागपुर से सब कुछ समेट कर सपनों की नगरी मुंबई पलायन कर गयी थी। कहने के लिए वह इस दुनिया में अकेली रह गई थी परन्तु उसके साथ कुणाल की हसीन यादें थीं। जानी मानी कंपनियों में काम करते हुए ,धीरे धीरे उसकी ज़िन्दगी पटरी पर आ गई थी। उसने वर्षों तक स्वयं को पूर्ण रूप से काम में डुबो दिया था और इस दौरान समीर भी विद्यार्थी जीवन से निकल कर अफसर बन गया था। एक दिन खाने की छुट्टी में वह अपने कुछ सहकर्मियों के साथ बैठी खाना खा रही थी कि सबने मिलकर उसके सामने पुनर्विवाह का प्रस्ताव रख दिया। उनका कहना था कि जीवन में एक साथी की आवश्यकता हर किसी को पड़ती है और खासतौर पर वृद्धावस्था में दोनों एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। जहाँ तक समीर का सवाल है भविष्य में उसकी अपनी ज़िन्दगी होगी ,ऐसे में अकेलेपन से बचने के लिए पुनर्विवाह श्रेष्ठ है। फिर कनिका की ऐसी कोई उम्र नहीं हुई थी कि पुनर्विवाह करने में संकोच हो। अचानक मिले इस प्रस्ताव से वह सकपका गई परन्तु फिर संभलते हुए बोली ,”कुणाल की यादों के सहारे ही इस जीवन को मैं व्यतीत करना चाहती हूँ ,यह अधिकार मैं किसी और को नहीं देना चाहती ,आशा है भविष्य में आप लोग ऐसी बातें मेरे सामने नहीं करेंगे। उसने अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए खाना समाप्त किया और पलकों पर रुके अश्रुओं के गिरने से पहले ही वहाँ से उठ कर चली गई। शाम को गरम चाय की चुस्की लेते हुए दिन में घटी घटना के बारे में वह सोचने लगी। उसने दर्पण में स्वयं को देखा तो उसे लगा कि इन वर्षों में वह काफी बदल गई है। उसने अपने चेहरे को गौर से देखा। चेहरे पर किसी प्रकार का कोई श्रृंगार नहीं था ,फिर भी माथे पर एक छोटी सी बिंदी और होठों की लाली ने एक अनोखा आकर्षण उत्पन्न कर रखा था ,काले बालों पर हलकी सफेदी थी। गाल पर आई लट को उसने करीने से कानों के पीछे किया तो सुनी कलाई और खाली मांग पर उसका ध्यान चला गया। पति से जुड़े इस श्रृंगार का उसके जीवन में कोई महत्त्व नहीं है ,यह आँखों में उभर आई नमी ने उसे एहसास करा दिया था। सहसा उसका हृदय पूछ बैठा ,”क्या समीर को अपने पिता की कमी महसूस नहीं होती होगी। क्या उसे पुनर्विवाह करना चाहिए ?परन्तु अगले ही पल कनिका को लगा जैसे कुणाल उसके पीछे ही खड़ा है और कह रहा है ,”तुम सिर्फ मेरी हो। “कनिका ने आँखे मूंदी तो दो मोती टपक गए। उसने अटल निर्णय लिया ,”वह कुणाल की थी और सदा उसकी ही रहेगी। कनिका अक्सर घर के पास वाले बगीचे में शाम के वक्त जा बैठती थी। बगीचे के पुष्पों की सुगंध उसे सुकून देती थी। रोज़ की तरह उस दिन भी वह बगीचे में बैठी थी। बगीचे के बीचों बीच बने पार्क में छोटे बच्चे खेल रहे थे। वह उन बच्चों का खेल देख रही थी कि अचानक उसकी निगाह दूर बेंच पर बैठे दंपत्ति पर चली गई। वह एक नवविवाहिता जोड़ा था जो दुनिया से बेखबर एक दूसरे से सिमट कर बैठा हुआ था। उसे याद आया कि शादी के बाद कुणाल और वह भी इसी तरह बैठे हुए थे। कनिका को फूलों का शौक था यह जान कर कुणाल ने उसके बालों में गजरा लगा दिया था। वह शर्मा कर बोली थी ,”कुणाल ,क्या तुम ऐसे ही सदा मेरे बालों में गजरा लगाओगे। “कुणाल की स्वीकृति पा कर वह मन ही मन प्रसन्न हुई थी। फिर तो जब भी वह बाहर जाते कनिका के बालों में गजरा ज़रूर महकता था। इन्हीं यादों में वह खोई हुई घर की ओर चल दी। घर आकर उसने कुणाल की तस्वीर निकाली और उसे बहुत देर तक निहारती रही।कनिका को अब समीर के विवाह की चिंता होने लगी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अकेली इस ज़िम्मेदारी को कैसे निभाएगी ?परन्तु समीर ने निहारिका से प्रेम विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो कनिका फूली न समाई। उसे लगा जैसे उसकी ज़िन्दगी भर का श्रम सफल हो गया। बेटे का विवाह हुआ तो निहारिका जैसी सुन्दर बहू को पाकर वह निहाल हो गई। उसे तो निहारिका के रूप में जैसे हीरा ही मिल गया था। निहारिका का उसके प्रति सदव्यवहार उसे सुकून पहुँचाता था। परन्तु जैसे जैसे समीर तरक्की की सीढ़ी चढ़ता गया वैसे वैसे निहारिका का बर्ताव कनिका के प्रति बदलता गया। वह अभिमान में इतनी चूर हो गई थी कि छोटे बड़े का फर्क भी भूल गई थी। ऐसे में कनिका ने समीर की टोह लेनी चाही थी। उसे आशा थी कि समीर निहारिका को समझायेगा परन्तु उसकी तरफ से कनिका को इस मामले में कोई सकारात्मकता नज़र नहीं आई। उल्टा वह कनिका को ही जवाब दे कर चुप करा देता था। आखिरकार जब सिर से ऊपर पानी होने लगा तो कनिका ने ही वृद्धाश्रम जाने का निर्णय लिया था। कनिका ने जब अटैची बंद की तो उसका क्रोध शांत हो चुका था। वह जल्दबाज़ी तो नहीं कर रही ?क्या अपना घर छोड़ कर सब कुछ ठीक हो जाएगा ? जिस स्नेह व आदर की वह हकदार है उसे प्राप्त हो जाएगा ?क्या वृद्धाश्रम जाना ही इस समस्या का एकमात्र हल है ?अपने ही अंदर अनेक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए वह बेचैन हो गई। उसकी अंतरात्मा बोल उठी ,नहीं नहीं वह अपने बच्चों से अलग नहीं रह सकती। वह बड़े होने के नाते उन्हें समझाएगी ,स्वयं को इस घर को सुधारने का एक अवसर ज़रूर देगी । अपने रक्त से सींच कर उसने अपने कुणाल के घर को बनाया था यों एक हलके से झोंके से बिखरने नहीं देगी। वह अपने ही ख्यालों में गुम थी कि सहसा निहारिका का स्वर सुन कर चौंक गई।”मुझे माफ़ कर दो ,आगे से ऐसा नहीं होगा ,एक मौका और दे दो। “परन्तु समीर की आवाज़ में क्रोध था ,”मुझे कुछ नहीं सुनना,तुम भी घर से जा सकती हो ,तुम मेरी माँ का सम्मान नहीं कर सकतीं तो मुझे भी तुम्हारी आवश्यकता नहीं है ,तुम्हे क्या पता माँ ने कितने कष्टों से पाला है मुझे। “उधर समीर न जाने क्या क्या कहे जा रहा था और इधर कनिका का दिल रो रहा था। उसने समीर के कमरे में प्रवेश किया तो निहारिका बहू उसके क़दमों में गिर पड़ी ,”मुझे माफ़ कर दीजिये मम्मीजी घर छोड़ कर मत जाइये। “कनिका का दिल पूर्ण रूप से पिघल गया था और उसने निहारिका को अपने गले से लगा लिया।

मधुर स्वेरा Good mornnig कनिका ने धीरे से ट्रंक खोला और सामान लगाने लगी। वह अब यहाँ नहीं रहना चाहती थी क्योंकि बहू के साथ उसके विचार नहीं मिलते थे। बात -बात पर वह घर से बाहर निकालने की धमकी देकर कनिका को चुप करा देती थी पर अब बस बहुत  हुआ। उसने सोच लिया था कि वह वृद्धाश्रम में रहेगी। यह रोज़ रोज़ का अपमान उसके लिए असह्य था। एक कांच का ग्लास ही तो टूटा था उससे और निहारिका ने बिना सोचे समझे कितना बुरा भला कह दिया था। वह भावुक  हो उठी और भीगी पलकों में आँसू छुपाये करीने से ट्रंक में अपना सामान लगाने लगी। उसने काँपते हाथों से कुणाल और अपनी तस्वीर हाथ में उठाई तो पलकों पर रुके अश्रु टपक गए। अपनी धोती के पल्लू से तस्वीर को साफ़ करते हुए वह कुणाल को निहारने लगी। उसे अपनी और कुणाल की प्रथम मुलाक़ात स्मरण हो आई जब कुणाल अपने माता पिता के साथ उसे देखने आये थे। देखते ही उसकी सुंदरता पर रीझ कर शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। उनके आकर्षण से वह भी अछूती नहीं रह सकी थी। कुणाल का आयात निर्यात का कार्य था और घर में उसके कदम रखते ही व्यापार बुलंदियों को छूने लगा था। धीरे धीरे क...

🪴🪔🪴गीता ज्ञान 🪴🪔🪴 विश्व की सर्वाधिक अनुवादित पुस्तक है। By वनिता कासनियां पंजाबगीता ज्ञान का गीता की प्रतियाँ छापने का विश्व रिकॉर्ड है। सबसे प्रिय व प्रचलित ग्रंथों में से एक है भगवद्गीता! आज गीता-जयंती है, मोक्षा एकादशी – मार्ग शीष शुक्ल एकादशी!अनेक गहन लेख, विश्लेषण आज देखने और पढ़ने को मिले। दो वर्ष पहले तक मुझे कुछ नहीं पता था गीता जयंती के बारे में और गीता की बारे में केवल जानकारी थी। कितने योग हैं, प्रत्येक का क्या संदेश है, भीम के शंख का नाम क्या है, ईश्वर को कौन प्रिय है, निष्काम कर्म के सोपान क्या हैं – कुछ नहीं पता था।घर में चार या पाँच गीता, अलग अलग रूपों में होने पर भी, पूरी एक बार भी पढ़ी नहीं थी। अनुवाद तो बाद की बात है, मूल संस्कृत के श्लोक भी गिने-चुने थे जो पता थे या कंठस्थ थे ( बी आर चोपड़ा का धन्यवाद)। जर्मनी, ब्लैक फारेस्ट घूमने गयी थी और वहां के एक छोटे से गाँव जैसी जगह में मुझे एक इस्कॉन के जर्मन व्यक्ति ने भगवद्गीता की अंग्रेजी अनुवाद की प्रति पकड़ाई थी और कहा था कि वह वृंदावन जाने के लिए प्रतीक्षारत है। उस दिन अपने आप को पहली बार गीता न पढ़ी होने के लिए धिक्कारा था।उसके बाद घर आ कर कितनी बार नियम बनाने का प्रयत्न किया कि नित्य एक श्लोक पढ़ने से तो आरम्भ करें पर हुआ ही नहीं। बस एक इंग्लिश अनुवाद वाली और एक गीता प्रेस की छोटी गुटका living room में रखी रहती थीं। उसे पूजा के समय नित्य पढ़ने का प्रयास किया, ‘कॉफ़ी टेबल बुक’ की तरह पढ़ने का प्रयास किया, ऑफिस आते-जाते पढ़ने का नियम बनाने का प्रयास किया पर प्रथम अध्याय के 8-10 श्लोकों से आगे किसी अवस्था में आगे नहीं बढ़ पाई। फिर सोचा पहले अच्छे से संस्कृत का पुनरावर्तन (revision) कर लूँ फिर गति से और सरलता से पढ़ ली जाएगी। पुस्तक से स्वयं पढ़ना आरम्भ किया क्योंकि लगता था दसवीं तक पढ़ी है तो उतना तक पहुँचे आगे की पास की एक वेद शाला में पढ़ लेंगे (पुणे में घर के पास मठ है वहाँ वेद शाला चलती है)। स्कूल वाला पुनरावर्तन भी न हो पाया, वेद शाला तो क्या ही जाते। इन सब में कुछ दो साल निकल गये।पिछले वर्ष मैं गुरकुल में अंतः वासी बनने के बाद से चौथा गेयर लग गया! प्रतिदिन पहले शिक्षा सत्र में बच्चे गीता के दो अध्याय अवश्य पढ़ते हैं और एक संध्या समय। जिस समय मैं आयी तो तीसरा और पंद्रहवाँ प्रातः और पहला अध्याय संध्या समय चल रहा था। इतनी संस्कृत तो पढ़नी आती थी कि क्या लिखा है पढ़ लेते थे और बच्चों के साथ साथ गुरूमाँ से सुनकर उच्चारण की अशुद्धियाँ भी ठीक कर लीं। आते जाते गुरु जी कुछ त्रुटि ठीक कराते रहते थे। एक मास में बच्चों को तो तीनों पाठ कंठस्थ हो गए और मुझे त्रुटि रहित पढ़ने का अभ्यास हो गया। मोबाइल से अधिक गीता कहाँ रखी है इसका ध्यान होता था (सबकी अपनी अपनी प्रति है यहाँ)। अनुभव तो कर लिया पर एक बार किसी अतिथि से गुरुमाँ को कहते सुना तो आभास हुआ की गीता तो गुरुकुल में एक विषय है, नियम से नित्य व पूरी गंभीरता से पढ़ा जाने वाला और जीवन शैली भी।गुरु माँ को 13 वर्ष की आयु से पूरी गीता कंठस्थ है। किसी भी अध्याय से कोई भी श्लोक, उसका कोई भी पद (एक अनुष्टुप छंद श्लोक में चार पद होते हैं) कभी भी पूछ लीजिये। उससे भी अधिक उसका दिनचर्या में कभी भी प्रयोग दृष्टांत के रूप में, कभी बच्चों से उनकी स्मृति परखने के बहाने, जो बच्चों ने याद कर लिया है उसमें से, कुछ भी पूछ लेना – बहुत सहजता से आता है उनके व्यक्तित्व में। उन्हें याद कराने के लिए तरह तरह से श्लोकों को लिखने का ग्रह कार्य मिलता है, जैसे प्रत्येक अध्याय का तीसरा श्लोक लिखो। मैंने भी बच्चों के साथ ऐसा करना आरम्भ कर दिया। फिर कभी शाम को हमने गाँव वाली गीता सुनी। गाँव की गुजराती में सुनाई गीता (कुछ ही श्लोक) सुनकर, उसकी शैली और शब्द चुनाव से हँस हँस के पेट में दर्द हो गया। सच में ROFL, साँस अटकने तक हँसे थे। संजय – हनजड़ेया, धृतराष्ट्र – धरतड़या और कृष्ण – कनहड़िया थे उसमें। ये भी गुरुमाँ ने सुनाया और कुछ महीनों में जैसे जैसे समय मिला उन्होंने गीता के प्रत्येक श्लोक पर एक गुजराती गीत लिखा, बात करते करते लिखती रहती थीं वो! 700 श्लोक हैं गीता में!गुरुजी तो गीता-दर्शन के विशारद हैं। यहाँ उनसे गीता पढ़ने कितने लोग आते हैं, सभी वर्गों से। कई जैन गुरु मुनि आदि भी आते हैं उनसे गीता व दर्शन के विशेष प्रश्नों के लिए। तब मैंने जाना कि कितने लोग कितने स्तर पर गीता को अपने जीवन से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं। गीता के लिए क्या-2 करते हैं। अविश्वसनीय सा था।अब गीता नित्य जीवन में है। प्रतिदिन एक अध्याय का सस्वर वाचन करना अत्यंत सहज है अब। कितने वर्तन पूरे हो चुकें हैं एक साल में। बच्चों के साथ बदल बदलकर नित्य के तीन अध्याय पढ़ते हुए; उच्चारण की अशुद्धि सुधारते हुए; कभी शब्दों से, कभी अंतः प्रेरणा से, कभी अनुभव कर, कभी गुरुजी को सुनकर श्लोकों को समझते हुए, कब भगवद्गीता जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई है, पता नहीं चला।पहला पड़ावपिछले वर्ष गीता जयंती पर युवाओं (कॉलेज के बच्चों) के लिए आयोजित गीता निबंध प्रतियोगिता के आयोजको में सम्मिलित हुई तो वो भी अविश्वसनीय सा ही था कि एक वर्ष पहले तक गीता जयंती का ही पता नहीं था और अगले वर्ष में गीता निबंध प्रतियोगिता के निबंध जांच रही थी। 800-900 निबंध आये थे और मुझे इंग्लिश के और कुछ हिंदी के निबंध जांचने थे। संस्कृत में केवल एक निबंध आया था। बच्चे अंक तालिका बनाते थे। गुजराती निबंधों की वर्तनी त्रुटि और व्याकरण त्रुटि पर दबे दबे हँसते थे कि कॉलेज के भैया-दीदी इतनी ग़लतियाँ करते हैं। पहली परीक्षा थी मेरी, गुरुजी से मैंने कहा कि मुझे तो गीता का कुछ ज्ञान नहीं है, मैं कैसे जाँच सकूँगी? वे बोले थे- “मुझे पता है आपको सही संदेश ही समझेंगे, गीता को समझने के लिए उसके एक एक श्लोक का ज्ञात होना आवश्यक नहीं है।” तार्किक बुद्धि से सोचें तो ऐसे में मुझे अहंकार आना चाहिए था, पर नहीं आया, कृतज्ञता का भाव आया। ये मेरे लिए विलक्षण अनुभव था। आत्म शुद्धि आरम्भ हो गयी थी, भगवद्गीता के कारण!हर वर्ष यह प्रतियोगिता आयोजित करना गुरुकुल की एक परंपरा सी है। युवा गीता पढ़ें, गीता से जुड़ें इसलिए आयोजित करी जाती है। इसी बहाने हाथ में तो उठाएंगे, कुछ पृष्ठ तो पलटेंगे। 900 में से 10 तो गीता को लेकर जिज्ञासु बनेंगे। निष्काम कर्म का बहुत ही सुंदर प्रत्यक्ष उदाहरण देखा। और बच्चों ने जो लिखा था वो एक अलग ही लघु यात्रा थी, विषय था – ‘अपने अपने जीवन में गीता के कौन से संदेश, उसके किन सिद्धान्तों का पालन उन्हें सफलता दिलाएगा और कैसे’। मेरा उन सब में से प्रिय वाक्य था – “गीता मा तो बद्धू खुल्लु छे!”-गीता में तो सब कुछ खुला है :)। उस किशोरी के कहने का अर्थ था कि सभी रहस्य ईश्वर ने सरलता से उजागर कर दिए हैं गीता में।(बड़े गुरुजी पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी ने गुरुजी मेहुलभाई आचार्य को भी गीता निबंध प्रतियोगिता द्वारा ही प्राप्त किया था। उस समय डाक से भेजे गए उनके निबंध को पढ़कर फ़ोन कर बड़े गुरुजी ने गुरुजी के पिताजी से उन्हें लेकर वाराणसी आने को कहा था और उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया था। कोई निवेदन नहीं, कोई एडमिशन की प्रक्रिया नहीं, कोई बैकग्राउंड चेक नहीं, कोई आधुनिक स्कूलों के प्रपंच नहीं! बड़े गुरुजी के बाद मेहुलभाई आचार्य अब गुरुकुल के मुख्य आचार्य हैं, विषय विशारद है। गीता, आयुर्वेद, दर्शन के सभी मुख्य ग्रंथ, उपनिषद आदि उन्हें कंठस्थ हैं और सही समय और अवसर पर उसका उपयोग व उद्धरण बहुत ही सहज है उनके लिए। केवल कंठस्थ ही नहीं, आत्मसात हैं ,उसमें से सब कुछ प्रत्येक बिंदु वह समझा सकते हैं फिर भी बहुत कुछ पढ़ते रहते हैं। गुरुकुल में (दो तीन स्थानों में विभक्त) 30,000 पुस्तकें/ग्रंथ शोध पत्रादि हैं। )दूसरा पड़ावचार महीने पहले, अचेत अम्मा को उनके अंतिम क्षणों में पंद्रहवाँ अध्याय जब पढ़ कर सुना रही थी तो वह सुन रही थीं। ICU में तीन पेशेंट चिंताजनक स्थिति में थे परंतु डॉक्टर ने अंदर रहकर अम्मा को गीता सुनाने की अनुमति दे दी थी। अम्मा के साथ साथ वो तीनों भी पूरी सभानता से सुन रहे थे। सभी नर्सिंग स्टाफ भी काम करते हुये सुन रहा था, दोनों सीनियर डॉक्टर भी। दूसरी बार बिना एक-एक श्लोक का अर्थ जाने अनुभव हुआ कर्मयोगी की परिभाषा का। अम्मा के साथ वाले बेड पर से मुझे निर्निमेष देखती और सुनती एक युवती के आर्त भाव से रहित उसकी विवश स्थिति में श्रवण क्षमता का – जैसे गुडाकेश की रही होगी कदाचित! और अम्मा के जीवन भर के सकाम और निष्काम कर्म का आभास और उसके अंतर का विवेक अपने आप प्रकट हुआ मन में। उस दिन तीन जीवों ने ICU में देह छोड़ा था। अम्मा की स्मृति के साथ एक श्लोक अब अंकित है मानस पटल पर:सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।गीता कंठस्थ अभी भी नहीं है क्योंकि स्मृति की दृढ़ता बहुत क्षीर्ण है, उसका पिछले बीस साल में बहुत ह्रास किया है। जीवन शैली, दूषित भोजन, दवाओं का प्रयोग, रोग, बहुत सारे कारण हैं। श्लोकों का शब्दार्थ से भावार्थ व अंत में निहित अर्थ और उसकी आत्मिक धारणा अभी तक पूरी नहीं है, बल्कि लगता है अभी भी शून्य ही है। किन्तु गीता की पूर्ण अनुपस्थिति से सदैव उपस्थिति में ये स्थानांतरण कैसे हुआ, सच में पता नहीं चला। और यात्रा….जारी है।

🪴🪔🪴गीता ज्ञान 🪴🪔🪴 विश्व की सर्वाधिक अनुवादित पुस्तक है।  By  वनिता कासनियां पंजाब गीता ज्ञान  का गीता की प्रतियाँ छापने का विश्व रिकॉर्ड है। सबसे प्रिय व प्रचलित ग्रंथों में से एक है भगवद्गीता! आज गीता-जयंती है, मोक्षा एकादशी – मार्ग शीष शुक्ल एकादशी! अनेक गहन लेख, विश्लेषण आज देखने और पढ़ने को मिले।  दो वर्ष पहले तक मुझे कुछ नहीं पता था गीता जयंती के बारे में और गीता की बारे में केवल जानकारी थी। कितने योग हैं, प्रत्येक का क्या संदेश है, भीम के शंख का नाम क्या है, ईश्वर को कौन प्रिय है, निष्काम कर्म के सोपान क्या हैं – कुछ नहीं पता था। घर में चार या पाँच गीता, अलग अलग रूपों में होने पर भी, पूरी एक बार भी पढ़ी नहीं थी। अनुवाद तो बाद की बात है, मूल संस्कृत के श्लोक भी गिने-चुने थे जो पता थे या कंठस्थ थे ( बी आर चोपड़ा का धन्यवाद)। जर्मनी, ब्लैक फारेस्ट घूमने गयी थी और वहां के एक छोटे से गाँव जैसी जगह में मुझे एक इस्कॉन के जर्मन व्यक्ति ने भगवद्गीता की अंग्रेजी अनुवाद की प्रति पकड़ाई थी और कहा था कि वह वृंदावन जाने के लिए प्रतीक्षारत है। उस दिन अपने आप...

🚩🪴गीता ज्ञान🪴🚩शकुनी का सबसे बड़ा रहस्य जो महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना By वनिता कासनियां पंजाब शकुनीकुछ लोग शकुनी को कौरवो का हित चाहने वाला मानते हैं परन्तु आज आप जानेंगे कि वह शकुनी ही था जिसने दोनों पक्षों को महाभारत के युद्ध में मरने के लिए झोंका था । वो शकुनी था जिसने कुरुवंश के विनाश की सपथ ली थी । वो शकुनी था जिसने पांडवों और कौरवों दोनों के ही साथ विश्वासघात किया । आखिर क्यों रची उसने कुरुवंश को ध्वस्त करने की साजिश और किस तरह दिया उसने अपनी साजिश को अंजाम । सारा कुछ आपको बताऊंगी बस बने रहिये अंत तक गीता ज्ञानके साथ ।मित्रो वैसे तो महाभारत युद्ध के लिए कई पात्रों को जिम्मेदार माना जाता है परंतु अधिकतर लोग कौरवों के मामा शकुनी को इस भयानक युद्ध के लिए उत्तरदायी मानते हैं । ये तो हम सभी जानते हैं कि मामा शकुनी बहुत ही बड़ा षड़यत्रकारी, क्रूर, कुटिल बुद्धि और चौसर खेलने में माहिर था ।शास्त्रों की मानें तो महाभारत काल में चौसर यानी द्युतक्रीड़ा में शकुनी को कोई भी नहीं हरा सकता था । लेकिन क्या आप जानते हैं कि आखिर उसके चौरस के पासों में ऐसा क्या था जिससे वह खेल में अजय माना जाता था?शकुनी कुरुवंश का विनाश क्यों करना चाहता था?शकुनी का वह सपना जो कभी पूरा नहीं हुआधर्मग्रंथों में वर्णित एक कथा के अनुसार शकुनी और उसका परिवार गांधारी से बहुत ज्यादा प्रेम करता था । वह उसे दुनिया की सारी खुशियां देना चाहता था । गांधारी शिव जी की भक्त भी थी । उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें सौ पुत्रों का वरदान दिया था ।इस बात का पता चलते ही भीष्म पितामह ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र के लिए राजा सुबाला से गांधारी का हाथ मांग लिया परंतु वह इस बात से क्रोधित हो गया । उसने अपने पिता से गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से ना करने की मांग की । किंतु भीष्म पितामह के बल से डरकर राजा सुबाला अपनी पुत्री गांधारी का विवाह अंधे धृतराष्ट्र से करने को तैयार हो गए ।जिसके बाद शकुनी ने मन ही मन कुरुवंश से इसका बदला लेने की ठान ली । मित्रो आपको बता दूँ कि धृतराष्ट से पहले गांधारी का विवाह एक बकरे से हुआ था । दरअसल जब राजा सुबाला ने पंडितों की सलाह पर गांधारी का विवाह सबसे पहले एक बकरे से करवा दिया ताकि बकरे की मृत्यु के बाद उसका दोष ख़त्म हो जाएगा और बाद में गांधारी का विवाह किसी राजा से करवा देंगे ।यह भी पड़ें – अप्सरा के साथ ऋषि ने क्यों किया एक हजार सालों तक भोग विलास?शकुनी को उन पापों की सजा मिली जो उसने कभी किए ही नहीं थेफिर कुछ समय बाद गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से हो गया । उधर विवाह के कुछ दिनों बाद जब धृतराष्ट्र को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्हें लगा कि गांधार नरेश ने धोखे से एक विधवा का विवाह मेरे साथ करा दिया है । जिसके बाद धृतराष्ट्र ने राजा सुबाला, उनकी पत्नी और उनके पुत्रों को जेल में डाल दिया ।सुबाल के कई पुत्र थे जिनमें शकुनी सबसे छोटा और बुद्धिमान था । जेल में लोगों को चावल के एक एक दाने खाने के लिए दिए जाते थे । गांधार नरेश सुबाला को लगा कि यदि हम सभी चावल के एक एक दाने खाएँगे तो एक दिन सभीअवश्य ही मर जाएँगे । इस से अच्छा है कि वे लोग अपने हिस्से के दाने भी शकुनी को दे दें ताकि वह जीवित रहे ।जब सभी जेल में थे तब उनके पिता ने शकुनी को चौसर में रूचि देखते हुए और मरने से पहले उससे कहा कि तुम मेरे मरने के बाद मेरी हड्डियों से पासा बनाना । इसमें मेरा दर्द और आक्रोश होगा जो तुम्हें चौसर में कभी नहीं हारने देगा । ये पासे हमेशा तुम्हारी आज्ञा मानेंगे ।अपने पिता की मृत्यु के बाद शकुनी ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख ली थी । ऐसा भी कहा जाता है कि पासो में उसके पिता की आत्मा वास कर गई थी, जिसकी वजह से वह पासे शकुनी की ही बात मानते थे ।शकुनी चाहता था अपने परिवार की मौत का बदलाराजा सुबाल के आखिरी दिनों में धृतराष्ट्र ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो उसने अपने पुत्र शकुनी को आजाद करने को कहा जिसके उपरांत शकुनी आजाद हो गया । बंदीग्रह से बाहर आने के बाद शकुनी अपने लक्ष्य को भूल न जाये इसलिए बंदीग्रह के लोगों ने उसकी एक टांग तोड़ दी । इसी वजह से शकुनी लंगड़ाकर चलता था ।आजाद होने के बाद उसने धृतराष्ट्र से अपने सभी भाइयों और माता पिता के साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध लेने के लिए प्रतिज्ञा ली तथा अपनी कुटिल बुद्धि का प्रयोग कर उन्हें महाभारत जैसे भयानक युद्ध में झोंक दिया । अभी तक आपने जाना कि शकुनी के पासो का रहस्य क्या था । अब आपको बताते हैं कि उसने कहाँ इनका इस्तेमाल किया था ।शकुनी ने अपने मंसूबों को किस तरह अंजाम दियाशकुनी जुआ खेलने में पारंगत था । उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था । उस की इस चाल मे कारण केवल पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी भयंकर अंत छुपा था क्योंकि शकुनी ने कौरव कुल के नाश की प्रतिज्ञा ली थी और उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना पहला मोहरा बना लिया था ।वह हर समय केवल मौके की तलाश में रहता था जिसके चलते कौरवों और पांडवों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा और कौरव मारे जाए । जब युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का युवराज घोषित किया गया तब शकुनी ने ही लाक्षाग्रह का षड्यंत्र रचा और सभी पांडवों को लाक्षागृह में जिंदा जलाकर मार डालने का प्रयास किया ।वो किसी भी तरह से दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत् रहे और वह मूर्ख दुर्योधन की मदद से भीष्म पितामह और कुरुवंश का नाश कर सके ।शकुनी ने ही पांडवों के प्रति दुर्योधन के मन मे वैर जगाया और उसे सत्ता को लेकर लोभी बना दिया । शकुनी अपने पासे से छह अंक लाने में उस्ताद था इसलिए वह छह अंक ही कहता था । हालांकि दोस्तों शकुनी के प्रतिशोध की कहानी का वर्णन वेदव्यास द्वारा लिखे गए महाभारत में नहीं मिलता है ।उसने दुर्योधन के अपमान का फायदा उठायाबहुत से विद्वानों का मानना है कि शकुनी मायाजाल और सम्मोहन की मदद से पासो को अपने पक्ष में पलट देता था । जब पासे फेके जाते थे तो कई बार उनके निर्णय पांडवों के पक्ष में होते थे ताकि पांडव भ्रम में रहे कि पासे सही है ।शकुनी के कारण ही महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवो व कौरवों में होने वाले मतभेद के बाद पांडवों को एक बंजर क्षेत्र सौंपा गया था लेकिन पांडवों ने अपनी मेहनत से उसे इंद्रप्रस्थ में बदल दिया । युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के समय दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला ।महल में प्रवेश करने के बाद, दुर्योधन ने इस जल की भूमि को एक विशाल कक्ष समझकर कदम रखा और इस पानी में गिर गया। यह तमाशा देखकर पांडवों की पत्नी द्रौपदी उस पर हंस पड़ी और कहा कि अंधे का पुत्र अंधा था। यह सुनकर दुर्योधन क्रोधित हो गया।दुर्योधन के मन में चल रही बदले की इस भावना को शकुनी ने बढ़ावा दे दिया और इसी का फायदा उठाते हुए उसने पासो का खेल चौसर खेलने की योजना बनाई । उसने दुर्योधन से कहा के तुम इस खेल में जीतकर बदला ले सकते हो । खेल के जरिए पांडवों को हराने के लिए शकुनी ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु पुत्रों को आमंत्रित किया और फिर शुरू हुआ दुर्योधन वा युधिष्टर के बीच चौसर खेलने का खेल ।पासो के जरिये रखी महाभारत की नीवशकुनी की चौसर की महारत अथवा उसका पासों पर स्वामित्व ऐसा था कि वह जो चाहता था वे अंक पासों पर आ जाते थे और उसकी उंगलियों के घुमाव पर ही पासों के अंक पूर्वनिर्धारित थे । खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढाने के लिए शकुनी ने आरंभ की कुछ पारियों की जीत युधिष्टर के पक्ष में जाने दी ताकि पांडवों में खेल के प्रति उत्साह बढ़ जाए ।जिसके बाद धीरे धीरे खेल के उत्साह में युधिष्टर अपनी सारी दौलत और साम्राज्य जुए में हार गए । अंत में हुआ ये कि शकुनी ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा किया कि यदि वे अपनी पत्नी को दाव पर लगाए । मजबूर होकर युधिष्टर ने शकुनी की बात मान ली और अंत में पांडव यह पारी भी हार गए । इस खेल में द्रौपदी का अपमान कुरुक्षेत्र के महायुद्ध का कारण बना ।इसी तरह की ढेर सारी धार्मिक और ज्ञानवर्धक पोस्ट पड़ते रहने के लिए यहाँ क्लिक करें और व्हाट्सप्प, ग्रुप ज्वाइन करें ।शकुनी अपनी सपथ पूरी होते नहीं देख पाया क्यूंकि महाभारत के युद्ध में वह पहले ही मार दिया गयामहाभारत जैसे भयानक युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने में शकुनि ने अहम भूमिका निभाई थी। इसलिए वह सबसे पहले स्वर्ग पहुंचा, क्योंकि उसने अपने परिवार पर किए गए अपने अत्याचारों का बदला लिया और उसी युद्ध में खुद शहीद हो गया ।पोस्ट पसंद आयी हो तो इसे शेयर जरूर करें । दोस्तो जब हमे परीक्षा मे कोई उत्तर नहीं आता तो हम उत्तर को स्वयं रच लेते हैं । अगर परीक्षा मे हमे उत्तर की एक लाइन भी सही से याद रह जाती है तो हम उस लाइन के सहारे पूरा पन्ना भर देते हैं । ठीक इसी तरह शास्त्र का ज्ञान अगर आप ने थोड़ा बहुत भी पढ़ रखा है तो आपके मुश्किल वक्त मे यह आपके काम जरूर आएगा ।इसलिए हम आपसे निवेदन करते हैं कि इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और परोपकार के इस सुअवसर का लाभ लें । इसके साथ ही मुझे इजाजत दें, हमेसा की तरह अंत तक बने रहने के लिए शुक्रिया ।

🚩🪴गीता ज्ञान🪴🚩 शकुनी का सबसे बड़ा रहस्य जो महाभारत युद्ध का मुख्य कारण बना                                       By वनिता कासनियां पंजाब  शकुनी कुछ लोग शकुनी को कौरवो का हित चाहने वाला मानते हैं परन्तु आज आप जानेंगे कि वह शकुनी ही था जिसने दोनों पक्षों को  महाभारत  के युद्ध में मरने के लिए झोंका था । वो शकुनी था जिसने कुरुवंश के विनाश की सपथ ली थी । वो शकुनी था जिसने पांडवों और कौरवों दोनों के ही साथ विश्वासघात किया । आखिर क्यों रची उसने कुरुवंश को ध्वस्त करने की साजिश और किस तरह दिया उसने अपनी साजिश को अंजाम । सारा कुछ आपको बताऊंगी बस बने रहिये अंत तक गीता ज्ञानके साथ । मित्रो वैसे तो महाभारत युद्ध के लिए कई पात्रों को जिम्मेदार माना जाता है परंतु अधिकतर लोग कौरवों के मामा शकुनी को इस भयानक युद्ध के लिए उत्तरदायी मानते हैं । ये तो हम सभी जानते हैं कि मामा शकुनी बहुत ही बड़ा षड़यत्रकारी, क्रूर, कुटिल बुद्धि और चौसर खेलने में माहिर था । शास्त्रों की मानें तो महाभारत काल मे...

Mangalwar ke Upay: अगर आपके जीवन में समस्याएं खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं या​ बहुत मेहनत के बाद भी सफलता हासिल नहीं हो रही तो हनुमान जी का पूजन अवश्य करें. #धार्मिक मान्यताओं के अनुसार #मंगलवार का दिन राम भक्त हनुमान को समर्पित है और जो व्यक्ति विधि-विधान के साथ इस दिन उनका पूजन करता है उसके सभी संकट दूर होते हैं. साथ ही हनुमान अपने भक्तों की सभी #मनोकामनाएं भी पूर्ण करते हैं. यहां त​क यदि आपके #जीवन में धन संबंधी #समस्या चल रही है और कर्ज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो मंगलवार के दिन ये विशेष उपाय जरूर अपनाएं.मंगलवार के उपायअगर आप धन संबंधी #समस्याओं का सामना कर रहे हैं तो इनसे छुटकारा पाने के लिए मंगलवार के दिन हनुमान मंदिर में जाएं और वहां सरसों के तेल में #मिट्टी का दीपक जलाएं. फिर वहीं बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ करें.इसके अलावा मंगलवार के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद ओम हनुमते नम: मंत्र का 108 बार जाप करे. इस उपाय को करने से भी हनुमान जी प्रसन्न होते हैं और कर्ज से मुक्ति प्राप्त होती है.कई लोग हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए मंगलवार के दिन व्रत भी रखते हैं. लेकिन ध्यान रखें कि इस दिन भूलकर भी नमक का सेवन नहीं करना चाहिए. बल्कि रात्रि के समय व्रत खोलते समय कुछ मीठा खाना चाहिए.मंगलवार के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद सबसे पहले गाय की एक रोटी अवश्य निकालें. इसके साथ ही एक नारियल लेकर अपने सिर के ऊपर से पैर तक घुमाएं और उसे हनुमान मंदिर में रख दें. इससे धन प्राप्ति के नए रास्ते खुलेंगे.#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम #संगरिया #राजस्थानयदि आप जीवन में धन की कमी से छुटकारा पाना चाहते हैं तो मंगलवार के दिन 11 पीपल के पत्ते लें और उन्हें साफ कर लें. इसके बाद इन पत्तों पर चंदन से श्री राम लिखें और इनकी माला बनाकर हनुमान जी को अर्पित करें. इससे आर्थिक #संकट दूर होगा

Mangalwar ke Upay: अगर आपके जीवन में समस्याएं खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं या​ बहुत मेहनत के बाद भी सफलता हासिल नहीं हो रही तो हनुमान जी का पूजन अवश्य करें. #धार्मिक मान्यताओं के अनुसार #मंगलवार का दिन राम भक्त हनुमान को समर्पित है और जो व्यक्ति विधि-विधान के साथ इस दिन उनका पूजन करता है उसके सभी संकट दूर होते हैं. साथ ही हनुमान अपने भक्तों की सभी #मनोकामनाएं भी पूर्ण करते हैं. यहां त​क यदि आपके #जीवन में धन संबंधी #समस्या चल रही है और कर्ज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो मंगलवार के दिन ये विशेष उपाय जरूर अपनाएं.मंगलवार के उपायअगर आप धन संबंधी #समस्याओं का सामना कर रहे हैं तो इनसे छुटकारा पाने के लिए मंगलवार के दिन हनुमान मंदिर में जाएं और वहां सरसों के तेल में #मिट्टी का दीपक जलाएं. फिर वहीं बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ करें.इसके अलावा मंगलवार के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद ओम हनुमते नम: मंत्र का 108 बार जाप करे. इस उपाय को करने से भी हनुमान जी प्रसन्न होते हैं और कर्ज से मुक्ति प्राप्त होती है.कई लोग हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए मंगलवार के दिन व्रत भी रखते हैं. लेकिन...

🚩🪴राष्ट्र हिंदू🪴🚩राष्ट्र हिंदू धर्म मेंमहर्षि मांडव्य - वो ऋषि जिन्होंने यमराज को भी श्राप दिया,माण्डव्य पौराणिक काल के एक महान ऋषि थे जिनके श्राप के कारण यमराज को भी मनुष्य का जन्म लेना पड़ा। वैसे तो यमराज सारे प्राणियों के कर्मों के आधार पर न्याय करते हैं इसीलिए उन्हें धर्मराज कहा जाता है किन्तु उन्होंने अनजाने में माण्डव्य ऋषि के साथ अन्याय किया जिसका दंड उन्हें भोगना पड़ा।महर्षि माण्डव्य भार्गव वंश के ऋषि थे और उनका एक नाम "अणीमाण्डव्य" भी कहा गया है। इनके विषय में कथा मत्स्य पुराण में दी गयी है। वे महर्षि मातंग और दित्तामंगलिका के पुत्र थे। उन्होंने अल्प आयु में ही बहुत सी सिद्धियां प्राप्त कर ली और ऋषियों में सम्मानित हो गए। उनका एक व्रत था कि संध्याकाल के तप के समय वे मौनव्रत धारण किये रहते थे।एक बार कुछ लुटेरे लूट का बहुत सारा सामान लेकर भाग रहे थे। उनके पीछे कई राजकीय सैनिक लगे थे जिनसे बचने के लिए वे भाग कर माण्डव्य ऋषि के आश्रम में छिप गए। थोड़ी देर बाद जब सैनिक वहां आये तो उन्होंने माण्डव्य ऋषि से उन लुटेरों के विषय में पूछा। मौन व्रत के कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब जब सैनिक अंदर गए तो उन्हें लूट के सामान के साथ लुटेरे भी मिल गए। उन्होंने समझा कि ये ऋषि भी इनके साथ मिले हुए हैं इसी कारण वे लुटेरों के साथ ऋषि को भी पकड़ कर ले गए और राजा के सामने प्रस्तुत किया।राजा ने भी उनसे प्रश्न किया किन्तु मौन व्रत होने के कारण माण्डव्य ऋषि कुछ नहीं बोले। राजा ने इसे उनकी स्वीकृति समझा और सभी लुटेरों के साथ उन्हें भी सूली पर चढाने का आदेश दे दिया। सूली पर चढाने से अन्य लुटेरे तो तक्षण मर गए किन्तु माण्डव्य ऋषि अपने तप के बल पर कई दिनों तक बिना खाये-पिए जीवित रहे। शूल के अग्र भाग को "अणि" कहते हैं और तभी से वे "अणीमाण्डव्य" नाम से भी प्रसिद्ध हुए।जब राजा को इस चमत्कार के बारे में पता चला तो तो स्वयं नंगे पांव महर्षि के पास आये और उन्हें सूली पर से उतारा। फिर उन्होंने महर्षि से बारम्बार क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने ये सोच कर उसे क्षमा कर दिया कि राजा ने तो परिस्थिति के अनुसार न्याय किया। वे चुप-चाप वहां से चले गए। वे चले तो गए किन्तु एक बात उन्हें खाये जा रही थी कि उन्होंने कभी कोई पाप नहीं किया फिर किस कारण उन्हें ऐसा दंड भोगना पड़ा?इसका कारण जानने के लिए वे यमपुरी पहुंचे जहाँ यमराज ने उनका स्वागत किया। माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा कि उन्हें याद नहीं कि कभी उन्होंने कोई अपराध किया हो तो फिर किस कारण उन्हें ऐसा घोर दंड भोगना पड़ा? इस पर यमराज ने कहा - "हे महर्षि! बालपन में आपने पतंगों के पृष्ठ भाग में सींक घुसा दिया था जिस कारण आपको ये दंड भोगना पड़ा। जिस प्रकार छोटे से पुण्य का भी बहुत फल प्राप्त होता है उसी प्रकार छोटे से पाप का भी फल अधिक ही मिलता है।यह सुनकर माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा कि मैंने ये अपराध किस आयु में किया था? तब यमराज ने उन्हें बताया कि उन्होंने ये कार्य १२ वर्ष की आयु में किया था। इसपर माण्डव्य अत्यंत क्रोधित हो यमराज से बोले - "हे धर्मराज! शास्त्रों के अनुसार मनुष्य द्वारा १२ वर्ष तक किये कार्य को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्यूंकि उस आयु में उन्हें पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता। किन्तु तुमने बालपन में किये गए मेरे अपराध के कारण मुझे इतना बड़ा दंड दिया इसीलिए मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि तुम मनुष्य योनि में शूद्र वर्ण में एक दासी के गर्भ से जन्मोगे।"तब यमराज ने उनसे प्रार्थना की तो उन्होंने उन्हें बताया कि अगले जन्म में वे सारे संसार में प्रसिद्ध होंगे। उसके अतिरिक्त माण्डव्य ऋषि ने एक नयी मर्यादा स्थापित की जिसमें उन्होंने आयु सीमा को बढ़ा कर १४ वर्ष कर दिया। अब १४ वर्ष तक के बच्चों को अपने किये आचरण के कारण दंड से अभय मिल गया। माण्डव्य ऋषि के श्राप के कारण ही धर्मराज द्वापर में महर्षि वेदव्यास की कृपा से अम्बा की दासी पारिश्रमी के गर्भ से विदुर के रूप में जन्में। वे अपने काल के महान राजनीतिज्ञ और हस्तिनापुर के महामंत्री बनें।माण्डव्य ऋषि के सन्दर्भ में एक और कथा का वर्णन आता है जो सती कौशिकी के सम्बन्ध में है। कौशिकी नाम की एक सती स्त्री थी जिनके पति का नाम कौशिक था जो अपंग थे। एक दिन रात्रि में वे कही जा रहे थे और अँधेरे के कारण वे तपस्यारत महर्षि माण्डव्य से टकरा गए जिससे उनकी तपस्या भंग हो गयी। इससे क्रुद्ध होकर माण्डव्य ऋषि ने कौशिकी को श्राप दे दिया कि अगले सूर्योदय पर वो विधवा हो जाएगी।कौशिकी अनेकों सिद्धों के पास गयी पर सभी ने माण्डव्य ऋषि के श्राप को विफल करने में असमर्थता दिखलाई। तब वे माता पार्वती की शरण में गयी जिन्होंने आकाशवाणी के माध्यम से उन्हें बताया कि वे अपने सतीत्व की शक्ति का प्रयोग करे। सूर्योदय से कुछ समय पूर्व यमदूत कौशिकी के सम्मुख आ गए किन्तु उसने दसो दिशाओं को साक्षी मान कर कहा कि यदि वो सच में सती है तो अब सूर्योदय ही नहीं होगा। सूर्यदेव कौशिकी के सतीत्व की रक्षा के कारण रुक गए।सूर्य की गति रुकने से सारे जगत में हाहाकार मच गया। देव त्रिदेवों के पास गए जिन्होंने उन्हें माता अनुसूया से सहायता मांगने को कहा। तब देवों की प्रार्थना पर अनुसूया कौशिकी के पास आयी और उसकी सराहना करते हुए सूर्य को मुक्त करने को कहा। उन्होंने कौशिकी को विश्वास दिलाया कि वे उसके पति के प्राणों की रक्षा करेंगी। उनके आश्वासन पर कौशिकी ने सूर्य को मुक्त कर दिया।सूर्योदय होते ही यमदूत कौशिक के प्राण लेने को आगे बढे किन्तु माता अनुसूया के सतीत्व के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। तब यमराज के अनुरोध पर माता अनुसूया ने अपने सतीत्व का कुछ भाग देकर कौशिकी को महर्षि माण्डव्य के श्राप से मुक्त कर दिया और कौशिक की रक्षा की। इस प्रकार संसार ने दो सतियों का प्रताप एक साथ देखा।बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम

🚩🪴राष्ट्र हिंदू🪴🚩 राष्ट्र हिंदू धर्म में महर्षि मांडव्य - वो ऋषि जिन्होंने यमराज को भी श्राप दिया , माण्डव्य पौराणिक काल के एक महान ऋषि थे जिनके श्राप के कारण  यमराज  को भी मनुष्य का जन्म लेना पड़ा। वैसे तो यमराज सारे प्राणियों के कर्मों के आधार पर न्याय करते हैं इसीलिए उन्हें धर्मराज कहा जाता है किन्तु उन्होंने अनजाने में माण्डव्य ऋषि के साथ अन्याय किया जिसका दंड उन्हें भोगना पड़ा। महर्षि माण्डव्य भार्गव वंश के ऋषि थे और उनका एक नाम  "अणीमाण्डव्य"  भी कहा गया है। इनके विषय में कथा मत्स्य पुराण में दी गयी है। वे महर्षि मातंग और दित्तामंगलिका के पुत्र थे। उन्होंने अल्प आयु में ही बहुत सी सिद्धियां प्राप्त कर ली और ऋषियों में सम्मानित हो गए। उनका एक व्रत था कि संध्याकाल के तप के समय वे मौनव्रत धारण किये रहते थे। एक बार कुछ लुटेरे लूट का बहुत सारा सामान लेकर भाग रहे थे। उनके पीछे कई राजकीय सैनिक लगे थे जिनसे बचने के लिए वे भाग कर माण्डव्य ऋषि के आश्रम में छिप गए। थोड़ी देर बाद जब सैनिक वहां आये तो उन्होंने माण्डव्य ऋषि से उन लुटेरों के विषय में पूछा। मौन व्...

पांडव दुर्योधन से छिपकर कहां गए November 11, 2022 गीता ज्ञानअभी तक हमने देखा कि किस तरह पांडवों को मारने का षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा लेकिन पांडव किसी तरह सुरंग से बचकर निकल गए । आपने पड़ा होगा कि एक भीलनी और उसके पांच बच्चे भी इस रात उस घर में जलकर मारे गए थे । अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पड़ी है तो आगे क्लिक करके पड़ सके हैं – पांडवों को जलने का षड्यंत्र ।इसी तरह की धार्मिक पोस्ट पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें – WhatsappGroupसबको भीलनी और उसके बच्चों के कंकाल देखकर यही लग रहा था कि वो माता कुंती और पांडवों के कंकाल हैं । सब जगह शोक की लहर थी, जनता जानती थी कि यह दुर्योधन ने ही करवाया है । दूसरी ओर पांडव सुरंग से निकलकर एक गंगा नदी के किनारे पहुंच गए । वहां विदुर द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने उन्हें नदी पार करवाकर जंगल में भेज दिया । गुप्तचर ने बताया कि विदुर जी का आदेश है कि पांडव कुछ समय भेष बदलकर ही छुपे रहें ।भीम का पहला विवाहजंगल में चलते चलते भीम के अलावा सारे भाई थक गए और आराम करने लगे । तभी वहां एक राक्षसी हिडिंबा आई जो पांडवों को मारना चाहती थी लेकिन भीम को देखकर मोहित हो गई और भीम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखने लगी । इतने में ही हिडिंबा का भाई हिडिम्बासुर भी वहां आ गया और भीम पर उसने हमला कर दिया । भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध बहुत लंबा चला और भीम ने उसे मार डाला ।भीम ने वापिस आकर हिडिंबा को वापिस लौट जाने को कहा लेकिन हिडम्बा ने माता कुंती से कहा कि अगर भीम उससे विवाह नहीं करते तो वह अपने प्राण त्याग देगी । तब माता कुंती ने भीम को हिडिंबा से विवाह करने का आदेश दिया । भीम ने एक शर्त पर विवाह किया कि जैसे ही हिडिंबा से उनका एक पुत्र हो जाएगा वे हिडिंबा को छोड़ देंगे । भीम और हिडिंबा का पुत्र घटोत्कच उत्पन्न हुआ जो भीम के समान बलशाली और हिडिंबा जैसा मायावी था । वह पांडवों के प्रति सम्मान की भावना रखता था और वे भी उससे बड़ा स्नेह किया करते थे ।पुत्र होने के बाद हिडिंबा भीम से दूर चली गई थी और अपने पुत्र को पांडवों के पास छोड़ गई थी । घटोत्कच का मन राक्षसों में ही लगता था इसलिए वह भी माता कुंती से आज्ञा लेकर वापिस चला गया था । उसने कहा था कि जब कभी भी पांडवों को उसकी सहायता की जरूरत होगी तब वह मात्र एक बार बुलाने पर हाजिर हो जायेगा ।पांडव कहां छिपेपांडवो को जंगल में वेदव्यास जी मिले जिन्हें उन्हें एक ब्राह्मण के घर पर भेष बदलकर रहने को कहा । पांडव ब्राम्हण के भेष में उस ब्राह्मण के घर रहने लगे थे । एक दिन उस ब्राह्मण के घर के सभी सदस्य रो रहे थे । माता कुंती ने पांडवों से कहा कि इस ब्राम्हण ने हमे छुपने की जगह दी है इसलिए इसका हमारे ऊपर एहसान है । हमे इसकी मदद करके इसका एहसान चुकाना चाहिए ।जब कुंती ने ब्राम्हण परिवार से रोने की वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि उनके गांव के बाहर एक राक्षस बकासुर रहता है ।गांव वाले बकासुर के लिए रोज एक गाड़ी अन्न और 2 भैंसे भेजते हैं लेकिन जो व्यक्ति गाड़ी और भैंसे लेकर जाता है बकासुर उसे भी खा जाता है । इस बार गाड़ी और भैंसे पहुंचाने की बारी उस ब्राह्मण के परिवार की है इसलिए सभी रो रहे हैं । माता कुंती ने कहा कि मैं अपने पुत्र भीम को इस काम के लिए भेज देती हूं । वह बड़ा ही बलवान और होशियार है जो राक्षस को भोजन भी पहुंचा देगा और जिंदा भी वापिस आ जायेगा ।भीम गाड़ी लेकर आगे आगे जा रहे थे और गाड़ी का भोजन स्वयं ही करते जा रहे थे । जब बकासुर ने भीम को आते देखा तो वह खुश हुआ लेकिन पास आने पर उसने देखा कि भीम उसका भोजन खाए जा रहे हैं तो उसने भीम पर हमला कर दिया । 10,000 हाथियों के बल से युक्त भीम ने बकासुर को मार डाला और गांव के चौराहे पर पटक दिया । गांव वालों ने जब बकासुर को मरा पाया तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए और ब्राह्मण के घर पहुंचे । पांडव छुप कर रह रहे थे इसलिए उन्होंने ब्राह्मण को सच छिपाने के लिए कहा था और ब्राह्मण ने गांव वालों को एक झूठी कहानी बनाकर संतुष्ट कर दिया ।पांडवो को द्रोपदी के बारे में पता केसे चलाएक दिन उस ब्राह्मण के घर पर एक और ब्राह्मण आए हुए थे जो उनको काफी सारे राज्यों के बारे में विस्तार से बता रहे थे । जब ब्राह्मण ने द्रुपद का जिक्र किया तो पांडवों ने द्रुपद के बारे में विस्तार से सुनना चाहा क्योंकि उन्होंने ही उसका आधा राज्य जीता था और उसे बंधी बनाकर द्रोणाचार्य को दे दिया था ।ब्राह्मण ने बताया कि राजा द्रुपद द्रोणाचार्य के द्वारा अपने अपमान के कारण परेशान रहते हैं । अब वह पहले से कमजोर हो गए हैं और यहां वहां भटकते रहते हैं । वो आश्रम आश्रम जाते हैं ताकि कोई ब्राह्मण यज्ञ करके उन्हें ऐसा पुत्र दिलाए जो द्रोण को मार सके लेकिन उन्हें कोई ऐसा ब्राह्मण नहीं मिलता । एक बार द्रुपद को एक ब्राह्मण उपयज मिले जिनकी उन्होंने बड़े ही अच्छे से सेवा की लेकिन उपयज ने द्रुपद का काम करने से मना कर दिया ।जब मना करने के बाद भी द्रुपद ने एक साल और उपयज की सेवा की तब उन्होंने उसे अपने बड़े भाई यज के बारे में बताया । उन्होंने कहा कि यज यह काम कर देंगे । ऐसा ही हुआ, यज ने द्रुपद का काम कर दिया और यज्ञ करके उसे ऐसा पुत्र दिलाया जो द्रोण का वध कर सके । यज्ञ से एक कन्या भी प्राप्त हुई और इसी के साथ भविस्यवाणी हुई कि वह कन्या देवताओं का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उत्पन्न हुई है । पुत्र का नाम धृष्टद्युम्न रखा गया और पुत्री का नाम द्रोपदी ।https://vnita38.blogspot.com/2022/10/by-physical-level-psychological-level.htmlपांडव द्रोपदी के बारे में सुनकर बैचेन हो रहे थे । ब्राह्मण ने द्रोपदी के स्वयंवर के बारे में सुना तो वे वहां जाने के लिए तत्पर हो गए लेकिन उन्हें व्यास देव जी बात याद आई कि वे उसी ब्राह्मण के घर में ही रहेंगे जब तक व्यास देव अगला आदेश उन्हें न दें । पांडवों व्याकुल हो रहे थे इसलिए उन्होंने व्यास देव का ध्यान किया और वे प्रकट गए । व्यास देव सबके मन की बात जानने वाले थे, उन्होंने पांडवों से बिना कुछ पूछे ही कहा कि उन्हें पांचाल जाना चाहिए ।पूछने पर व्यास देव ने द्रोपदी के पिछले जीवन का प्रसंग बताया । पिछले जन्म में द्रोपदी एक ब्राह्मण की कन्या थी जिसका विवाह नहीं हो रहा था । उसने शिव जी की तपस्या की और शिव जी प्रकट हो गए । शिव जी ने वरदान मांगने को कहा तो द्रोपदी ने पांच बार बोल दिया कि उन्हें एक बलशाली पति प्राप्त हो, एक धार्मिक पति प्राप्त हो, एक सहनशील पति प्राप्त हो इत्यादि ।तब शिव जी ने कहा था कि तुम्हे अगले जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे क्योंकि तुमने पांच बार पति मांगा है । व्यास देव ने बताया कि शिव जी के वरदान अनुसार पांच पांडव ही द्रोपदी के पति के रूप नियुक्त हैं इसलिए उन्हें द्रोपदी के स्वयंवर में जाना चाहिए ।आगे की कहानी बताएंगे अगले पोस्ट में । अगली पोस्ट की जानकारी पाने केलिए व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें –https://chat.whatsapp.com/4ZNNZKzaDF2IrLZM2YvD2s

पांडव दुर्योधन से छिपकर कहां गए   November 11, 2022    गीता ज्ञान अभी तक हमने देखा कि किस तरह पांडवों को मारने का षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा लेकिन पांडव किसी तरह सुरंग से बचकर निकल गए । आपने पड़ा होगा कि एक भीलनी और उसके पांच बच्चे भी इस रात उस घर में जलकर मारे गए थे । अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पड़ी है तो आगे क्लिक करके पड़ सके हैं –  पांडवों को जलने का षड्यंत्र  । इसी तरह की धार्मिक पोस्ट पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें –  WhatsappGroup सबको भीलनी और उसके बच्चों के कंकाल देखकर यही लग रहा था कि वो माता कुंती और पांडवों के कंकाल हैं । सब जगह शोक की लहर थी, जनता जानती थी कि यह दुर्योधन ने ही करवाया है । दूसरी ओर पांडव सुरंग से निकलकर एक गंगा नदी के किनारे पहुंच गए । वहां विदुर द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने उन्हें नदी पार करवाकर जंगल में भेज दिया । गुप्तचर ने बताया कि विदुर जी का आदेश है कि पांडव कुछ समय भेष बदलकर ही छुपे रहें । भीम का पहला विवाह जंगल में चलते चलते भीम के अलावा सारे भाई थक गए और आराम करने ल...

।। राम ।।राम से बड़ा राम का नाम !!!By वनिता कासनियां पंजाब*महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥राम नाम जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥ राम नाम मन्त्र - जाप और नाम - जाप दोनों है,एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है। राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी। राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है। इस प्रकार भगवान को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम भगवान को पुकारे जिससे भगवान कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए।जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की ओर आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है।निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम,,,करोड़ों ब्रह्माण्ड भगवान के एक - एक रोम में बसते हैं। दशरथ के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहे हैं , उस परमात्मा का नाम भी राम है। नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम दोनों से बड़ा है ।राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता हैभगवान स्वयं नामी कहलाते हैं . भगवान परमात्मा अनामय है अर्थात विकार रहित है। उसका न नाम है , न रूप है उसकी जानने के लिए उनका नाम रख कर सम्बोधित किया जाता है , क्योंकि हम लोग नाम रूप में बैठे हैं इसलिए उसे ब्रह्म कहते हैं। जिस अनंत, नित्यानंद और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं , उसी राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है।अनंत नामों में मुख्य राम नाम है। भगवान के गुण आदि को लेकर कई नाम आयें हैं, उनका जप किया जाये तो भगवान के गुण , प्रभाव, तत्व ,लीला आदि याद आयेंगें।भगवान के नामों से भगवान के चरित्र की याद आती है। भगवान के चरित्र अनंत हैं। उन चरित्र को लेकर नाम जप भी अनंत ही होगा।राम नाम में अखिल सृष्टि समाई हुई है,वाल्मीकि ने सौ करोड़ श्लोकों की रामायण बनाई , तो सौ करोड़ श्लोकों की रामायण को भगवान शंकर के आगे रख दिया जो सदैव राम नाम जपते रहते हैं। उन्होनें उसका उपदेश पार्वती को दिया। शंकर ने रामायण के तीन विभाग कर त्रिलोक में बाँट दिया . तीन लोकों को तैंतीस - तैंतीस करोड़ दिए तो एक करोड़ बच गया।उसके भी तीन टुकड़े किए तो एक लाख बच गया उसके भी तीन टुकड़े किये तो एक हज़ार बच और उस एक हज़ार के भी तीन भाग किये तो सौ बच गया . उसके भी तीन भाग किए एक श्लोक बच गया।इस प्रकार एक करोड़ श्लोकों वाली रामायण के तीन भाग करते करते एक अनुष्टुप श्लोक बचा रह गया . एक अनुष्टुप छंद के श्लोक में बत्तीस अक्षर होते हैं उसमें दस - दस करके तीनों को दे दिए तो अंत में दो ही अक्षर बचे भगवान् शंकर ने यह दो अक्षर रा और म आपने पास रख लिए।राम अक्षर में ही पूरी रामायण है , पूरा शास्त्र है।राम नाम वेदों के प्राण के सामान है। शास्त्रों का और वर्णमाल का भी प्राण है . प्रणव को वेदों का प्राण माना जाता है। प्रणव तीन मात्र वाल ॐ कार पहले ही प्रगट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय . ऋक , साम और यजुः - ये तीन प्रमुख वेद बने . इस प्रकार ॐ कार [ प्रणव ] वेदों का प्राण है।राम नाम को वेदों का प्राण माना जाता है , क्योंकि राम नाम से प्रणव होता है . जैसे प्रणव से र निकाल दो तो केवल पणव हो जाएगा अर्थात ढोल हो जायेगा . ऐसे ही ॐ में से म निकाल दिया जाए तो वह शोक का वाचक हो जाएगा . प्रणव में र और ॐ में म कहना आवश्यक है . इसलिए राम नाम वेदों का प्राण भी है।अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती है।नाम और रूप दोनों ईश्वर कि उपाधि हैं। भगवान् के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि है . सुन्दर, शुद्ध भक्ति युक्त बुद्धि से ही इसका दिव्य अविनाशी स्वरुप जानने में आता है। राम नाम लोक और परलोक में निर्वाह करने वाला होता है। लोक में यह देने वाला चिंतामणि और परलोक में भगवत्दर्शन कराने वाला है. वृक्ष में जो शक्ति है वह बीज से ही आती है इसी प्रकार अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती ही।राम नाम अविनाशी और व्यापक रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है। सत् है , चेतन है और आनंद राशि है . उस आनंद रूप परमात्मा से कोई जगह खाली नही , कोई समय खाली नहीं , कोई व्यक्ति खाली नही कोई प्रकृति खाली नही ऐसे परिपूर्ण , ऐसे अविनाशी वह निर्गुण है . वस्तुएं नष्ट जाती है, व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं , समय का परिवर्तन हो जाता है, देश बदल जाता है , लेकिन यह सत् - तत्व ज्यों -त्यों ही रहता है इसका विनाश नही होता है इसलिए यह सत् है।जीभ वागेन्द्रिय है उससे राम राम जपने से उसमें इतनी अलौकिकता आ जाती है की ज्ञानेन्द्रिय और उसके आगे अंतःकरण और अन्तः कारण से आगे प्रकृति और प्रकृति से अतीत परमात्मा तत्व है , उस परमात्मा तत्व को यह नाम जाना दे ऐसी उसमें शक्ति है।राम नाम मणिदीप है। एक दीपक होता है एक मणिदीप होता है . तेल का दिया दीपक कहलाता है मणिदीप स्वतः प्रकाशित होती है . जो मणिदीप है वह कभी बुझती नहीं है . जैसे दीपक को चौखट पर रख देने से घर के अंदर और भर दोनों हिस्से प्रकाशित हो जाते हैं वैस ही राम नाम को जीभ पर रखने से अंतःकरण और बाहरी आचरण दोनों प्रकाशित हो जाते हैं।यानी भक्ति को यदि ह्रदय में बुलाना हो तो, राम नाम का जप करो इससे भक्ति दौड़ी चली आएगी।अनेक जन्मों से युग युगांतर से जिन्होंने पाप किये हों उनके ऊपर राम नाम की दीप्तिमान अग्नि रख देने से सारे पाप कटित हो जाते हैं .राम के दोनों अक्षर मधुर और सुन्दर हैं . मधुर का अर्थ रचना में रस मिलता हुआ और मनोहर कहने का अर्थ है की मन को अपनी ओर खींचता हुआ . राम राम कहने से मुंह में मिठास पैदा होती है दोनों अक्षर वर्णमाल की दो आँखें हैं .राम के बिना वर्णमाला भी अंधी है।जगत में सूर्य पोषण करता है और चन्द्रना अमृत वर्षा करता है है . राम नाम विमल है जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु - केतु ग्रहण लगा देते हैं , लेकिन राम नाम पर कभी ग्रहण नहीं लगता है . चन्द्रमा घटा बढता रहता है लेकिन राम तो सदैव बढता रहता है .यह सदा शुद्ध है अतः यह निर्मल चन्द्रमा और तेजश्वी सूर्य के समान है।अमृत के स्वाद और तृप्ति के सामान राम नाम है . राम कहते समय मुंह खुलता है और म कहने पर बंद होता है . जैसे भोजन करने पर मुख खुला होता है और तृप्ति होने पर मुंह बंद होता है . इसी प्रकार रा और म अमृत के स्वाद और तोष के सामान हैं ।छह कमलों में एक नाभि कमल [ चक्र ] है उसकी पंखुड़ियों में भगवान के नाम है , वे भी दिखने लग जाते हैं . आँखों में जैसे सभी बाहरी ज्ञान होता है ऐसे नाम जाप से बड़े बड़े शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है , जिसने पढ़ाई नहीं की , शास्त्र शास्त्र नहीं पढ़े उनकी वाणी में भी वेदों की ऋचाएं आती है. वेदों का ज्ञान उनको स्वतः हो जाता है।राम नाम निर्गुण और सगुण के बीच सुन्दर साक्षी है . यह दोनों के बीच का वास्तविक ज्ञान करवाने वाला चतुर दुभाषिया है . नाम सगुन और निर्गुण दोनों से श्रेष्ट चतुर दुभाषिया है।राम जाप से रोम रोम पवित्र हो जाता है। साधक ऐसा पवित्र हो जाता है उसके दर्शन , स्पर्श भाषण से ही दूसरे पर असर पड़ता है . अनिश्चिता दूर होती है शोक - चिंता दूर होते हैं , पापों का नाश होता है . वे जहां रहते हैं वह धाम बन जाता है वे जहां चलते हैं वहां का वायुमंडल पवित्र हो जाता है।परमात्मा ने अपनी पूरी पूरी शक्ति राम नाम में रख दी है। नाम जप के लिए कोई स्थान, पात्र विधि की जरुरत नही है . रात दिन राम नाम का जप करो निषिद्ध पापाचरण आचरणों से स्वतः ग्लानी हो जायेगी। अभी अंतकरण मैला है इसलिए मलिनता अच्छी लगती है मन के शुद्ध होने पर मैली वस्तुओं कि अकांक्षा नहीं रहेगी . जीभ से राम राम शुरू कर दो मन की परवाह मत करो . ऐसा मत सोचो कि मन नहीं लग रहा है तो जप निरर्थक चल रहा है . जैसे आग बिना मन के छुएंगे तो भी वह जलायेगी ही।ऐसे ही भगवान् का नाम किसी तरह से लिया जाए , अंतर्मन को निर्मल करेगा ही . अभी मन नहीं लग रहा है तो परवाह नहीं करो , क्योंकि आपकी नियत तो मन लगाने की है तो मन लग जाएगा। भगवान ह्रदय की बात देखते हैं की यह मन लगा चाहता है लेकिन मन नही लगा। इसलिए मन नहीं लगे तो घबराओ मत और जाप करते करते मन लगाने का प्रयत्न करो।कैसे लें राम - नाम,,,सोते समय सभी इन्द्रिय मन में , मन बुध्दि में , बुद्धि प्रकृति में अर्थात अविद्या में लीन हो जाती है , गाढ़ी नींद में जब सभी इन्द्रियां लीन होती है उस पर भी उस व्यक्ति को पुकारा जाए तो वह अविद्या से जग जाता है। राम नाम में अपार अपार शन्ति , आनंद और शक्ति भरी हुई है . यह सुनने और स्मरण करने में सुन्दर और मधुर है ।राम नाम जप करने से यह अचेतन - मन में बस जाता है उसके बाद अपने आप से राम राम जप होने लगता है करना नहीं पड़ता है।रोम रोम उच्चारण करता है। चित्त इतना खिंच जाता है की छुडाये नहीं छुटता।भगवान शरण में आने वाले को मुक्ति देते हैं लेकिन भगवान का नाम उच्चारण मात्र से मुक्ति दे देता है। जैसे छत्र का आश्रय लेने वाल छत्रपति हो जाता है , वैसे ही राम रूपी धन जिसके पास है वही असली धनपति है . सुगति रूपी जो सुधा है वह सदा के लिए तृप्त करने वाली होती है। जिस लाभ के बाद में कोई लाभ नहीं बच जाता है जहां कोई दुःख नहीं पहुँच सकता है ऐसे महान आनंद को राम नाम प्राप्त करवाता है।भगवान के नाम से समुन्द्र में पत्थर तैर गए तो व्यक्ति का उद्धार होना कौन सी बड़ी बात है ? राम अपने भक्तों को धारण करने वाले है।राम नाम अन्य साधन निरपेक्ष स्वयं सर्वसमर्थ परमब्रह्म हैं।* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम🚩🚩🚩🚩

।। राम ।। राम से बड़ा राम का नाम !!! By  वनिता कासनियां पंजाब *महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥ महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥ राम नाम जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥  राम नाम मन्त्र - जाप और नाम - जाप दोनों है,एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है। राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी। राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है।  इस प्रकार भगवान को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम भगवान को पुकारे जिससे भगवान कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए।जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की ओर आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है। निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम,,,करोड़ों ब्रह्माण्ड भगवान के एक - एक रोम में बसते हैं। दशरथ के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहे ...