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पांडव दुर्योधन से छिपकर कहां गए November 11, 2022 गीता ज्ञानअभी तक हमने देखा कि किस तरह पांडवों को मारने का षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा लेकिन पांडव किसी तरह सुरंग से बचकर निकल गए । आपने पड़ा होगा कि एक भीलनी और उसके पांच बच्चे भी इस रात उस घर में जलकर मारे गए थे । अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पड़ी है तो आगे क्लिक करके पड़ सके हैं – पांडवों को जलने का षड्यंत्र ।इसी तरह की धार्मिक पोस्ट पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें – WhatsappGroupसबको भीलनी और उसके बच्चों के कंकाल देखकर यही लग रहा था कि वो माता कुंती और पांडवों के कंकाल हैं । सब जगह शोक की लहर थी, जनता जानती थी कि यह दुर्योधन ने ही करवाया है । दूसरी ओर पांडव सुरंग से निकलकर एक गंगा नदी के किनारे पहुंच गए । वहां विदुर द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने उन्हें नदी पार करवाकर जंगल में भेज दिया । गुप्तचर ने बताया कि विदुर जी का आदेश है कि पांडव कुछ समय भेष बदलकर ही छुपे रहें ।भीम का पहला विवाहजंगल में चलते चलते भीम के अलावा सारे भाई थक गए और आराम करने लगे । तभी वहां एक राक्षसी हिडिंबा आई जो पांडवों को मारना चाहती थी लेकिन भीम को देखकर मोहित हो गई और भीम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखने लगी । इतने में ही हिडिंबा का भाई हिडिम्बासुर भी वहां आ गया और भीम पर उसने हमला कर दिया । भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध बहुत लंबा चला और भीम ने उसे मार डाला ।भीम ने वापिस आकर हिडिंबा को वापिस लौट जाने को कहा लेकिन हिडम्बा ने माता कुंती से कहा कि अगर भीम उससे विवाह नहीं करते तो वह अपने प्राण त्याग देगी । तब माता कुंती ने भीम को हिडिंबा से विवाह करने का आदेश दिया । भीम ने एक शर्त पर विवाह किया कि जैसे ही हिडिंबा से उनका एक पुत्र हो जाएगा वे हिडिंबा को छोड़ देंगे । भीम और हिडिंबा का पुत्र घटोत्कच उत्पन्न हुआ जो भीम के समान बलशाली और हिडिंबा जैसा मायावी था । वह पांडवों के प्रति सम्मान की भावना रखता था और वे भी उससे बड़ा स्नेह किया करते थे ।पुत्र होने के बाद हिडिंबा भीम से दूर चली गई थी और अपने पुत्र को पांडवों के पास छोड़ गई थी । घटोत्कच का मन राक्षसों में ही लगता था इसलिए वह भी माता कुंती से आज्ञा लेकर वापिस चला गया था । उसने कहा था कि जब कभी भी पांडवों को उसकी सहायता की जरूरत होगी तब वह मात्र एक बार बुलाने पर हाजिर हो जायेगा ।पांडव कहां छिपेपांडवो को जंगल में वेदव्यास जी मिले जिन्हें उन्हें एक ब्राह्मण के घर पर भेष बदलकर रहने को कहा । पांडव ब्राम्हण के भेष में उस ब्राह्मण के घर रहने लगे थे । एक दिन उस ब्राह्मण के घर के सभी सदस्य रो रहे थे । माता कुंती ने पांडवों से कहा कि इस ब्राम्हण ने हमे छुपने की जगह दी है इसलिए इसका हमारे ऊपर एहसान है । हमे इसकी मदद करके इसका एहसान चुकाना चाहिए ।जब कुंती ने ब्राम्हण परिवार से रोने की वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि उनके गांव के बाहर एक राक्षस बकासुर रहता है ।गांव वाले बकासुर के लिए रोज एक गाड़ी अन्न और 2 भैंसे भेजते हैं लेकिन जो व्यक्ति गाड़ी और भैंसे लेकर जाता है बकासुर उसे भी खा जाता है । इस बार गाड़ी और भैंसे पहुंचाने की बारी उस ब्राह्मण के परिवार की है इसलिए सभी रो रहे हैं । माता कुंती ने कहा कि मैं अपने पुत्र भीम को इस काम के लिए भेज देती हूं । वह बड़ा ही बलवान और होशियार है जो राक्षस को भोजन भी पहुंचा देगा और जिंदा भी वापिस आ जायेगा ।भीम गाड़ी लेकर आगे आगे जा रहे थे और गाड़ी का भोजन स्वयं ही करते जा रहे थे । जब बकासुर ने भीम को आते देखा तो वह खुश हुआ लेकिन पास आने पर उसने देखा कि भीम उसका भोजन खाए जा रहे हैं तो उसने भीम पर हमला कर दिया । 10,000 हाथियों के बल से युक्त भीम ने बकासुर को मार डाला और गांव के चौराहे पर पटक दिया । गांव वालों ने जब बकासुर को मरा पाया तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए और ब्राह्मण के घर पहुंचे । पांडव छुप कर रह रहे थे इसलिए उन्होंने ब्राह्मण को सच छिपाने के लिए कहा था और ब्राह्मण ने गांव वालों को एक झूठी कहानी बनाकर संतुष्ट कर दिया ।पांडवो को द्रोपदी के बारे में पता केसे चलाएक दिन उस ब्राह्मण के घर पर एक और ब्राह्मण आए हुए थे जो उनको काफी सारे राज्यों के बारे में विस्तार से बता रहे थे । जब ब्राह्मण ने द्रुपद का जिक्र किया तो पांडवों ने द्रुपद के बारे में विस्तार से सुनना चाहा क्योंकि उन्होंने ही उसका आधा राज्य जीता था और उसे बंधी बनाकर द्रोणाचार्य को दे दिया था ।ब्राह्मण ने बताया कि राजा द्रुपद द्रोणाचार्य के द्वारा अपने अपमान के कारण परेशान रहते हैं । अब वह पहले से कमजोर हो गए हैं और यहां वहां भटकते रहते हैं । वो आश्रम आश्रम जाते हैं ताकि कोई ब्राह्मण यज्ञ करके उन्हें ऐसा पुत्र दिलाए जो द्रोण को मार सके लेकिन उन्हें कोई ऐसा ब्राह्मण नहीं मिलता । एक बार द्रुपद को एक ब्राह्मण उपयज मिले जिनकी उन्होंने बड़े ही अच्छे से सेवा की लेकिन उपयज ने द्रुपद का काम करने से मना कर दिया ।जब मना करने के बाद भी द्रुपद ने एक साल और उपयज की सेवा की तब उन्होंने उसे अपने बड़े भाई यज के बारे में बताया । उन्होंने कहा कि यज यह काम कर देंगे । ऐसा ही हुआ, यज ने द्रुपद का काम कर दिया और यज्ञ करके उसे ऐसा पुत्र दिलाया जो द्रोण का वध कर सके । यज्ञ से एक कन्या भी प्राप्त हुई और इसी के साथ भविस्यवाणी हुई कि वह कन्या देवताओं का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उत्पन्न हुई है । पुत्र का नाम धृष्टद्युम्न रखा गया और पुत्री का नाम द्रोपदी ।https://vnita38.blogspot.com/2022/10/by-physical-level-psychological-level.htmlपांडव द्रोपदी के बारे में सुनकर बैचेन हो रहे थे । ब्राह्मण ने द्रोपदी के स्वयंवर के बारे में सुना तो वे वहां जाने के लिए तत्पर हो गए लेकिन उन्हें व्यास देव जी बात याद आई कि वे उसी ब्राह्मण के घर में ही रहेंगे जब तक व्यास देव अगला आदेश उन्हें न दें । पांडवों व्याकुल हो रहे थे इसलिए उन्होंने व्यास देव का ध्यान किया और वे प्रकट गए । व्यास देव सबके मन की बात जानने वाले थे, उन्होंने पांडवों से बिना कुछ पूछे ही कहा कि उन्हें पांचाल जाना चाहिए ।पूछने पर व्यास देव ने द्रोपदी के पिछले जीवन का प्रसंग बताया । पिछले जन्म में द्रोपदी एक ब्राह्मण की कन्या थी जिसका विवाह नहीं हो रहा था । उसने शिव जी की तपस्या की और शिव जी प्रकट हो गए । शिव जी ने वरदान मांगने को कहा तो द्रोपदी ने पांच बार बोल दिया कि उन्हें एक बलशाली पति प्राप्त हो, एक धार्मिक पति प्राप्त हो, एक सहनशील पति प्राप्त हो इत्यादि ।तब शिव जी ने कहा था कि तुम्हे अगले जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे क्योंकि तुमने पांच बार पति मांगा है । व्यास देव ने बताया कि शिव जी के वरदान अनुसार पांच पांडव ही द्रोपदी के पति के रूप नियुक्त हैं इसलिए उन्हें द्रोपदी के स्वयंवर में जाना चाहिए ।आगे की कहानी बताएंगे अगले पोस्ट में । अगली पोस्ट की जानकारी पाने केलिए व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें –https://chat.whatsapp.com/4ZNNZKzaDF2IrLZM2YvD2s

पांडव दुर्योधन से छिपकर कहां गए   November 11, 2022    गीता ज्ञान अभी तक हमने देखा कि किस तरह पांडवों को मारने का षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा लेकिन पांडव किसी तरह सुरंग से बचकर निकल गए । आपने पड़ा होगा कि एक भीलनी और उसके पांच बच्चे भी इस रात उस घर में जलकर मारे गए थे । अगर आपने पिछली पोस्ट नहीं पड़ी है तो आगे क्लिक करके पड़ सके हैं –  पांडवों को जलने का षड्यंत्र  । इसी तरह की धार्मिक पोस्ट पड़ते रहने के लिए हमारा व्हाट्सएप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहां क्लिक करें –  WhatsappGroup सबको भीलनी और उसके बच्चों के कंकाल देखकर यही लग रहा था कि वो माता कुंती और पांडवों के कंकाल हैं । सब जगह शोक की लहर थी, जनता जानती थी कि यह दुर्योधन ने ही करवाया है । दूसरी ओर पांडव सुरंग से निकलकर एक गंगा नदी के किनारे पहुंच गए । वहां विदुर द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने उन्हें नदी पार करवाकर जंगल में भेज दिया । गुप्तचर ने बताया कि विदुर जी का आदेश है कि पांडव कुछ समय भेष बदलकर ही छुपे रहें । भीम का पहला विवाह जंगल में चलते चलते भीम के अलावा सारे भाई थक गए और आराम करने ल...

।। राम ।।राम से बड़ा राम का नाम !!!By वनिता कासनियां पंजाब*महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥राम नाम जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥ राम नाम मन्त्र - जाप और नाम - जाप दोनों है,एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है। राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी। राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है। इस प्रकार भगवान को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम भगवान को पुकारे जिससे भगवान कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए।जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की ओर आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है।निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम,,,करोड़ों ब्रह्माण्ड भगवान के एक - एक रोम में बसते हैं। दशरथ के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहे हैं , उस परमात्मा का नाम भी राम है। नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम दोनों से बड़ा है ।राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता हैभगवान स्वयं नामी कहलाते हैं . भगवान परमात्मा अनामय है अर्थात विकार रहित है। उसका न नाम है , न रूप है उसकी जानने के लिए उनका नाम रख कर सम्बोधित किया जाता है , क्योंकि हम लोग नाम रूप में बैठे हैं इसलिए उसे ब्रह्म कहते हैं। जिस अनंत, नित्यानंद और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं , उसी राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है।अनंत नामों में मुख्य राम नाम है। भगवान के गुण आदि को लेकर कई नाम आयें हैं, उनका जप किया जाये तो भगवान के गुण , प्रभाव, तत्व ,लीला आदि याद आयेंगें।भगवान के नामों से भगवान के चरित्र की याद आती है। भगवान के चरित्र अनंत हैं। उन चरित्र को लेकर नाम जप भी अनंत ही होगा।राम नाम में अखिल सृष्टि समाई हुई है,वाल्मीकि ने सौ करोड़ श्लोकों की रामायण बनाई , तो सौ करोड़ श्लोकों की रामायण को भगवान शंकर के आगे रख दिया जो सदैव राम नाम जपते रहते हैं। उन्होनें उसका उपदेश पार्वती को दिया। शंकर ने रामायण के तीन विभाग कर त्रिलोक में बाँट दिया . तीन लोकों को तैंतीस - तैंतीस करोड़ दिए तो एक करोड़ बच गया।उसके भी तीन टुकड़े किए तो एक लाख बच गया उसके भी तीन टुकड़े किये तो एक हज़ार बच और उस एक हज़ार के भी तीन भाग किये तो सौ बच गया . उसके भी तीन भाग किए एक श्लोक बच गया।इस प्रकार एक करोड़ श्लोकों वाली रामायण के तीन भाग करते करते एक अनुष्टुप श्लोक बचा रह गया . एक अनुष्टुप छंद के श्लोक में बत्तीस अक्षर होते हैं उसमें दस - दस करके तीनों को दे दिए तो अंत में दो ही अक्षर बचे भगवान् शंकर ने यह दो अक्षर रा और म आपने पास रख लिए।राम अक्षर में ही पूरी रामायण है , पूरा शास्त्र है।राम नाम वेदों के प्राण के सामान है। शास्त्रों का और वर्णमाल का भी प्राण है . प्रणव को वेदों का प्राण माना जाता है। प्रणव तीन मात्र वाल ॐ कार पहले ही प्रगट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय . ऋक , साम और यजुः - ये तीन प्रमुख वेद बने . इस प्रकार ॐ कार [ प्रणव ] वेदों का प्राण है।राम नाम को वेदों का प्राण माना जाता है , क्योंकि राम नाम से प्रणव होता है . जैसे प्रणव से र निकाल दो तो केवल पणव हो जाएगा अर्थात ढोल हो जायेगा . ऐसे ही ॐ में से म निकाल दिया जाए तो वह शोक का वाचक हो जाएगा . प्रणव में र और ॐ में म कहना आवश्यक है . इसलिए राम नाम वेदों का प्राण भी है।अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती है।नाम और रूप दोनों ईश्वर कि उपाधि हैं। भगवान् के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि है . सुन्दर, शुद्ध भक्ति युक्त बुद्धि से ही इसका दिव्य अविनाशी स्वरुप जानने में आता है। राम नाम लोक और परलोक में निर्वाह करने वाला होता है। लोक में यह देने वाला चिंतामणि और परलोक में भगवत्दर्शन कराने वाला है. वृक्ष में जो शक्ति है वह बीज से ही आती है इसी प्रकार अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती ही।राम नाम अविनाशी और व्यापक रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है। सत् है , चेतन है और आनंद राशि है . उस आनंद रूप परमात्मा से कोई जगह खाली नही , कोई समय खाली नहीं , कोई व्यक्ति खाली नही कोई प्रकृति खाली नही ऐसे परिपूर्ण , ऐसे अविनाशी वह निर्गुण है . वस्तुएं नष्ट जाती है, व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं , समय का परिवर्तन हो जाता है, देश बदल जाता है , लेकिन यह सत् - तत्व ज्यों -त्यों ही रहता है इसका विनाश नही होता है इसलिए यह सत् है।जीभ वागेन्द्रिय है उससे राम राम जपने से उसमें इतनी अलौकिकता आ जाती है की ज्ञानेन्द्रिय और उसके आगे अंतःकरण और अन्तः कारण से आगे प्रकृति और प्रकृति से अतीत परमात्मा तत्व है , उस परमात्मा तत्व को यह नाम जाना दे ऐसी उसमें शक्ति है।राम नाम मणिदीप है। एक दीपक होता है एक मणिदीप होता है . तेल का दिया दीपक कहलाता है मणिदीप स्वतः प्रकाशित होती है . जो मणिदीप है वह कभी बुझती नहीं है . जैसे दीपक को चौखट पर रख देने से घर के अंदर और भर दोनों हिस्से प्रकाशित हो जाते हैं वैस ही राम नाम को जीभ पर रखने से अंतःकरण और बाहरी आचरण दोनों प्रकाशित हो जाते हैं।यानी भक्ति को यदि ह्रदय में बुलाना हो तो, राम नाम का जप करो इससे भक्ति दौड़ी चली आएगी।अनेक जन्मों से युग युगांतर से जिन्होंने पाप किये हों उनके ऊपर राम नाम की दीप्तिमान अग्नि रख देने से सारे पाप कटित हो जाते हैं .राम के दोनों अक्षर मधुर और सुन्दर हैं . मधुर का अर्थ रचना में रस मिलता हुआ और मनोहर कहने का अर्थ है की मन को अपनी ओर खींचता हुआ . राम राम कहने से मुंह में मिठास पैदा होती है दोनों अक्षर वर्णमाल की दो आँखें हैं .राम के बिना वर्णमाला भी अंधी है।जगत में सूर्य पोषण करता है और चन्द्रना अमृत वर्षा करता है है . राम नाम विमल है जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु - केतु ग्रहण लगा देते हैं , लेकिन राम नाम पर कभी ग्रहण नहीं लगता है . चन्द्रमा घटा बढता रहता है लेकिन राम तो सदैव बढता रहता है .यह सदा शुद्ध है अतः यह निर्मल चन्द्रमा और तेजश्वी सूर्य के समान है।अमृत के स्वाद और तृप्ति के सामान राम नाम है . राम कहते समय मुंह खुलता है और म कहने पर बंद होता है . जैसे भोजन करने पर मुख खुला होता है और तृप्ति होने पर मुंह बंद होता है . इसी प्रकार रा और म अमृत के स्वाद और तोष के सामान हैं ।छह कमलों में एक नाभि कमल [ चक्र ] है उसकी पंखुड़ियों में भगवान के नाम है , वे भी दिखने लग जाते हैं . आँखों में जैसे सभी बाहरी ज्ञान होता है ऐसे नाम जाप से बड़े बड़े शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है , जिसने पढ़ाई नहीं की , शास्त्र शास्त्र नहीं पढ़े उनकी वाणी में भी वेदों की ऋचाएं आती है. वेदों का ज्ञान उनको स्वतः हो जाता है।राम नाम निर्गुण और सगुण के बीच सुन्दर साक्षी है . यह दोनों के बीच का वास्तविक ज्ञान करवाने वाला चतुर दुभाषिया है . नाम सगुन और निर्गुण दोनों से श्रेष्ट चतुर दुभाषिया है।राम जाप से रोम रोम पवित्र हो जाता है। साधक ऐसा पवित्र हो जाता है उसके दर्शन , स्पर्श भाषण से ही दूसरे पर असर पड़ता है . अनिश्चिता दूर होती है शोक - चिंता दूर होते हैं , पापों का नाश होता है . वे जहां रहते हैं वह धाम बन जाता है वे जहां चलते हैं वहां का वायुमंडल पवित्र हो जाता है।परमात्मा ने अपनी पूरी पूरी शक्ति राम नाम में रख दी है। नाम जप के लिए कोई स्थान, पात्र विधि की जरुरत नही है . रात दिन राम नाम का जप करो निषिद्ध पापाचरण आचरणों से स्वतः ग्लानी हो जायेगी। अभी अंतकरण मैला है इसलिए मलिनता अच्छी लगती है मन के शुद्ध होने पर मैली वस्तुओं कि अकांक्षा नहीं रहेगी . जीभ से राम राम शुरू कर दो मन की परवाह मत करो . ऐसा मत सोचो कि मन नहीं लग रहा है तो जप निरर्थक चल रहा है . जैसे आग बिना मन के छुएंगे तो भी वह जलायेगी ही।ऐसे ही भगवान् का नाम किसी तरह से लिया जाए , अंतर्मन को निर्मल करेगा ही . अभी मन नहीं लग रहा है तो परवाह नहीं करो , क्योंकि आपकी नियत तो मन लगाने की है तो मन लग जाएगा। भगवान ह्रदय की बात देखते हैं की यह मन लगा चाहता है लेकिन मन नही लगा। इसलिए मन नहीं लगे तो घबराओ मत और जाप करते करते मन लगाने का प्रयत्न करो।कैसे लें राम - नाम,,,सोते समय सभी इन्द्रिय मन में , मन बुध्दि में , बुद्धि प्रकृति में अर्थात अविद्या में लीन हो जाती है , गाढ़ी नींद में जब सभी इन्द्रियां लीन होती है उस पर भी उस व्यक्ति को पुकारा जाए तो वह अविद्या से जग जाता है। राम नाम में अपार अपार शन्ति , आनंद और शक्ति भरी हुई है . यह सुनने और स्मरण करने में सुन्दर और मधुर है ।राम नाम जप करने से यह अचेतन - मन में बस जाता है उसके बाद अपने आप से राम राम जप होने लगता है करना नहीं पड़ता है।रोम रोम उच्चारण करता है। चित्त इतना खिंच जाता है की छुडाये नहीं छुटता।भगवान शरण में आने वाले को मुक्ति देते हैं लेकिन भगवान का नाम उच्चारण मात्र से मुक्ति दे देता है। जैसे छत्र का आश्रय लेने वाल छत्रपति हो जाता है , वैसे ही राम रूपी धन जिसके पास है वही असली धनपति है . सुगति रूपी जो सुधा है वह सदा के लिए तृप्त करने वाली होती है। जिस लाभ के बाद में कोई लाभ नहीं बच जाता है जहां कोई दुःख नहीं पहुँच सकता है ऐसे महान आनंद को राम नाम प्राप्त करवाता है।भगवान के नाम से समुन्द्र में पत्थर तैर गए तो व्यक्ति का उद्धार होना कौन सी बड़ी बात है ? राम अपने भक्तों को धारण करने वाले है।राम नाम अन्य साधन निरपेक्ष स्वयं सर्वसमर्थ परमब्रह्म हैं।* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम🚩🚩🚩🚩

।। राम ।। राम से बड़ा राम का नाम !!! By  वनिता कासनियां पंजाब *महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥ महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥ राम नाम जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥  राम नाम मन्त्र - जाप और नाम - जाप दोनों है,एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है। राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी। राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है।  इस प्रकार भगवान को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम भगवान को पुकारे जिससे भगवान कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए।जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की ओर आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है। निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम,,,करोड़ों ब्रह्माण्ड भगवान के एक - एक रोम में बसते हैं। दशरथ के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहे ...

ग्रस्तोदय (उपच्छायी) खग्रास #चन्द्रग्रहण (शंका समाधान) Byवनिता कासनियां पंजाब 〰️〰️🌼〰️〰️🌼🌼〰️〰️🌼〰️〰️कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा 8 नवम्बर 2022 मंगलवार को यह ग्रहण सम्पूर्ण भारत में ग्रस्तोदय रूप में दिखाई देगा। इस ग्रहण का आरम्भ (स्पर्श) भारत में कही भी दिखाई नहीं देगा। क्योंकि यह ग्रहण चन्द्रोदय से पहले ही आरम्भ हो जायेगा। ग्रहण का मोक्ष केवल पूर्वी भारत में दिखाई देगा। देश के बाकी भाग में मोक्ष का आशिंक रूप ही दिखेगा। ग्रहण का सूतक 8 नवम्बर 2022 ई. को सूर्योदय के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगा। सामान्यतः चन्द्रग्रहण का सूतक स्पर्श से 9 घण्टे पूर्व माना जाता है। परन्तु ग्रस्तोदय चन्द्र ग्रहण होने से पूरे दिन सूतक माना जायेगा। ग्रस्तोदय चन्द्र ग्रहण में चन्द्रोदय से ग्रहण समाप्ति तक के काल को ही पर्व काल माना जाता हैं अतः चन्द्रोदय को ही ग्रहण आरम्भ मानकर सभी धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन व अनुष्ठान ग्रहण मोक्ष पर करना चाहिये। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यह ग्रहण घटित होने से कार्तिक पूर्णिमा के स्नान व दान का महत्व अनन्त हो जायेगा।ग्रहण (स्पर्श) प्रारम्भ👉 दिन 2 बजकर 39 मिनट से।खग्रास प्रारम्भ👉 दिन 3 बजकर 46 मिनट से।ग्रहण मध्य👉 सायं 4 बजकर 29 मिनट से।खग्रास समाप्त 👉 सायं 5 बजकर 12 मिनट पर।ग्रहण मोक्ष 👉 सायं 6 बजकर 19 मिनट पर।क्या है चंद ग्रहण पौराणिक एवं वैज्ञानिक मान्यता〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार समुद्र मंथन के दौरान असुरों और दानवों के बीच अमृत के लिए घमासान चल रहा था इस मंथन में अमृत देवताओं को मिला लेकिन असुरों ने उसे छीन लिया अमृत को वापस लाने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी नाम की सुंदर कन्या का रूप धारण किया और असुरों से अमृत ले लिया जब वह उस अमृत को लेकर देवताओं के पास पहुंचे और उन्हें पिलाने लगे तो राहु नामक असुर भी देवताओं के बीच जाकर अमृत पिने के लिए बैठ गया जैसे ही वो अमृत पीकर हटा, भगवान सूर्य और चंद्रमा को भनक हो गई कि वह असुर है तुरंत उससे अमृत छिना गया और विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी। क्योंकि वो अमृत पी चुका था इसीलिए वह मरा नहीं उसका सिर और धड़ राहु और केतु नाम के ग्रह पर गिरकर स्थापित हो गए। ऐसी मान्यता है कि इसी घटना के कारण सुर्य और चंद्रमा को ग्रहण लगता है, इसी वजह से उनकी चमक कुछ देर के लिए चली जाती है। इसके साथ यह भी माना जाता है कि जिन लोगों की राशि में सुर्य और चंद्रमा मौजूद होते हैं उनके लिए यह ग्रहण बुरा प्रभाव डालता है। वहीं, विज्ञान के अनुसार यह एक प्रकार की खगोलीय स्थिति है. जिनमें चंद्रमा, पृथ्वी और पृथ्वी तीनों एक ही सीधी रेखा में आ जाते हैं। इससे चंद्रमा पृथ्वी की उपछाया से होकर गुजरता है, जिस वजह से उसकी रोशनी फिकी पड़ जाती है।ग्रहण-सूतक के समय पालनीय〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️सूतक के समय तथा ग्रहण के समय दान तथा जापादि का महत्व माना गया है. पवित्र नदियों अथवा तालाबों में स्नान किया जाता है। मंत्र जाप किया जाता है तथा इस समय में मंत्र सिद्धि का भी महत्व है। तीर्थ स्नान, हवन तथा ध्यानादि शुभ काम इस समय में किए जाने पर शुभ तथा कल्याणकारी सिद्ध होते हैं। धर्म-कर्म से जुड़े लोगों को अपनी राशि अनुसार अथवा किसी योग्य ब्राह्मण के परामर्श से दान की जाने वाली वस्तुओं को इकठ्ठा कर के रख लेना चाहिए फिर अगले दिन सुबह सूर्योदय के समय दुबारा स्नान कर संकल्प के साथ उन वस्तुओं को योग्य व्यक्ति को दे देना चाहिए।ग्रहण-सूतक में वर्जित कार्य 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️सूतक के समय और ग्रहण के समय भगवान की मूर्ति को स्पर्श करना निषिद्ध माना गया है। खाना-पीना, सोना, नाखून काटना, भोजन बनाना, तेल लगाना आदि कार्य भी इस समय वर्जित हैं. इस समय झूठ बोलना, छल-कपट, बेकार का वार्तालाप और मूत्र विसर्जन से परहेज करना चाहिए. सूतक काल में बच्चे, बूढ़े, गर्भावस्था स्त्री आदि को उचित भोजन लेने में कोई परहेज नहीं हैं।सूतक आरंभ होने से पहले ही अचार, मुरब्बा, दूध, दही अथवा अन्य खाद्य पदार्थों में कुशा तृण डाल देना चाहिए जिससे ये खाद्य पदार्थ ग्रहण से दूषित नहीं होगें। अगर कुशा नहीं है तो तुलसी का पत्ता भी डाल सकते हैं. घर में जो सूखे खाद्य पदार्थ हैं उनमें कुशा अथवा तुलसी पत्ता डालना आवश्यक नहीं है।ग्रहण में क्या करें, क्या न करें ?〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके 'ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्धि होने पर उस घृत को पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाक् सिद्धि प्राप्त कर लेता है। सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक 'अरुन्तुद' नरक में वास करता है। सूर्यग्रहण में ग्रहण चार प्रहर (१२ घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर (९) घंटे पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं। ग्रहण-वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए। ग्रहण वेध के प्रारम्भ में तिल या कुश मिश्रित जल का उपयोग भी अत्यावश्यक परिस्थिति में ही करना चाहिए और ग्रहण शुरू होने से अंत तक अन्न या जल नहीं लेना चाहिए। ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए। स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं। ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए। ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए। ग्रहण के स्नान में कोई मंत्र नहीं बोलना चाहिए। ग्रहण के स्नान में गरम जल की अपेक्षा ठंडा जल, ठंडे जल में भी दूसरे के हाथ से निकाले हुए जल की अपेक्षा अपने हाथ से निकाला हुआ, निकाले हुए की अपेक्षा जमीन में भरा हुआ, भरे हुए की अपेक्षा बहता हुआ, (साधारण) बहते हुए की अपेक्षा सरोवर का, सरोवर की अपेक्षा नदी का, अन्य नदियों की अपेक्षा गंगा का और गंगा की अपेक्षा भी समुद्र का जल पवित्र माना जाता है। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरूरतमंदों को वस्त्रदान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ने चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिए व दंतधावन नहीं करना चाहिए। ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल-मूत्र का त्याग, मैथुन और भोजन – ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय कोई भी शुभ व नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए। ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है। गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए। तीन दिन या एक दिन उपवास करके स्नान दानादि का ग्रहण में महाफल है, किन्तु संतानयुक्त गृहस्थ को ग्रहण और संक्रान्ति के दिन उपवास नहीं करना चाहिए। भगवान वेदव्यासजी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- 'सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्यग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगाजल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।' ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम-जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है। ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षों का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है। (स्कन्द पुराण) भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिए। (देवी भागवत) अस्त के समय सूर्य और चन्द्रमा को रोगभय के कारण नहीं देखना चाहिए। चंद्र ग्रहण का 12 राशियों पर प्रभाव 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️1. मेष राशि👉 आपकी राशि पर इसका प्रभाव अशुभ बताया जा रहा रहा है। उनके साथ किसी भी प्रकार की घात, कष्ट, भय एवं धन्यवाद की हानि होने की सम्भावना है। 2. वृषभ राशि👉 आपकी राशि पर इसका प्रभाव अशुभ रहेगा। आपको किसी भी प्रकार की हानि एवं गृहकलेश हो सकता है।3. मिथुन राशि👉 आपकी राशि पर यह ग्रहण शुभ फल दायक रहेगा धन के साथ विविध सुख मिल सकता है।4. कर्क राशि👉 आपकी राशि पर यह ग्रहण विविध कष्ट के साथ चिंता एवं अकारण ही भय का वातावरण बना सकता है।5. सिंह राशि👉 आपकी राशि पर यह ग्रहण अशुभ है। मान-सम्मान को क्षति पहुंच कंसाथबसंतान को कष्ट एवं हानि होने की संभावना है।6. कन्या राशि👉 आपकी राशि पर यह चंद्र ग्रहण अशुभ है। आपको किसी भी प्रकार के मृत्युतुल्य कष्ट के साथ हानि एवं अपव्यय हो सकता है।7. तुला राशि👉 आपकी राशि पर यह ग्रहण अशुभ है। आपको स्त्री अथवा पति को पीड़ा हो सकती है। 8.वृश्चिक राशि👉 आपकी राशि के लिए भी यह चंद्र ग्रहण अशुभ रहेगा रोग, चिंता एवं कार्यों मे नुकसान होने की सम्भवना रहेगी।9. धनु राशि👉 आपकी राशि के लिए भी यह चंद्र ग्रहण अशुभ माना जा रहा है। यह किसी प्रकार की चिंता, संघर्ष एवं मानसिक-शारीरिक विकार दे सकता है।10. मकर राशि👉 आपकी राशि पर भी यह चंद्र ग्रहण अशुभ है। आपको किसी बात को लेकर कष्ट का सामना करना पड़ सकता अकस्मात रोग-भय का भी डर है।11.कुम्भ राशि👉 आपकी राशि के लिए भी यह चंद्र ग्रहण शुभ रहेगा जीवन मे प्रगति, अकस्मात लाभ और सुख प्रपर होने की सम्भावना बढ़ेगी।12.मीन राशि👉 आपकी राशि पर यह चंद्र ग्रहण अशुभ असर देने वाला माना जा रहा है। यह किसी भी प्रकार की धन अथवा मान हानि करा सकता है।चन्द्रग्रहण पर बाधा नाशक खास उपाय 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️चंद्र ग्रहण के शुभ प्रभाव प्राप्त करने के उपाय धर्म शास्त्रों और वेदों में ग्रहण के दौरान बालक, वृद्ध और रोगी के लिए कोई नियम नहीं बताया गया है ।1👉 चीटियों को पिसा हुआ चावल व आटा डालें।2👉 मोती, चांदी, चावल, मिश्री, सफेद कपड़ा, सफेद फूल, शंख, कपूर, श्वेत चंदन, पलाश की लकड़ी, दूध, दही, चावल, घी, चीनी आदि का दान करें। 3👉 चन्द्रमा को मन और मां का कारक माना गया है, जन्म कुंडली में चन्द्रमा जिस भाव में बैठा हो उसके स्वामी अनुसार दान-पुण्य करना चाहिए। 4👉 चन्द्र वृष राशि के लिए शुभ और वृश्चिक राशी के लिए अशुभ होता है, जब चन्द्र जन्म कुण्डली में उच्च भाव का हो तब चन्द्र से सम्बन्धित वस्तुओं का दान नही करना चाहिए। 5👉 अगर चन्द्र कुण्डली के दूसरे और चौथे भाव में हो तो चावल चीनी दूध का दान न करें।6👉 यदि वृश्चिक राशि में हो तो चन्द्र की शुभता प्राप्त करने के लिए धार्मिक स्थल या शमशान के पास आम जनता के लिए प्याउ (पानी की टंकी) बनवाएं या किसी मिट्टी के बर्तन में पक्षियों के लिये पानी रखें। 7👉 चन्द्र दोष दूर करने के लिए सोमवार, अमावस्या का दिन बहुत ही शुभ होता है। किंतु चन्द्र दोष से पीड़ित के लिए चन्द्रग्रहण के दौरान चन्द्र उपासना बहुत ही जरूरी होती है। शिव जी की आराधना करें अपने श्री इष्ट देवता जाप करें।8👉 यदि आपका व्यवसाय ठीक नहीं चल रहा है तो ग्रहण से पहले नहाकर लाल या सफेद कपड़े पहन लें। इसके बाद ऊन व रेशम से बने आसन को बिछाकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाएं।9👉 जब ग्रहण काल प्रारंभ हो तब चमेली के तेल का दीपक जला लें। अब दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला लें तथा बाएं हाथ में 5 गोमती चक्र लेकर नीचे लिखे मंत्र का 54 बार जप करें ।!! ऊँ कीली कीली स्वाहा !!इसके बाद इन गोमती चक्रों को एक डिब्बी में डाल दें और फिर क्रमश: 5 हकीक दाने व 5 मूंगे के दाने लेकर पुन: इस मंत्र का 54 बार उच्चारण करें। अब इन्हें भी एक डिब्बी में डालकर उसके ऊपर सिंदूर भर दें। अब दीपक को शांत कर उसका तेल भी इस डिब्बी में डाल दें। इस डिब्बी को बंद करके अपने घर, दुकान या ऑफिस में रखें। आपका बिजनेस चल निकलेगा।10👉 तंत्र शास्त्र के अनुसार चन्द्रग्रहण किया गया प्रयोग बहुत प्रभावी होता है और इसका फल भी तुरंत प्राप्त होता है। इस मौके का लाभ उठाकर यदि आप धनवान होना चाहते हैं तो नीचे लिखा उपाय करने से आपकी मनोकामना शीघ्र ही पूरी होगी ।और आपको धन लाभ होगा।11 उपाय👉 चंद्र ग्रहण के पूर्व नहाकर साफ पीले रंग के कपड़े पहन लें और ग्रहण काल शुरु होने पर उत्तर दिशा की ओर मुख करके कुश के आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने चौकी पर एक थाली में केसर का स्वास्तिक या ऊँ बनाकर उस पर महालक्ष्मी यंत्र स्थापित करें। इसके बाद उसके सामने एक दिव्य शंख थाली में स्थापित करें। अब थोड़े से चावल को केसर में रंगकर शंख में डालें। घी का दीपक जलाकर नीचे लिखे मंत्र का कमलगट्टे की माला से ग्यारह माला जप करें-मन्त्र👉 सिद्धि बुद्धि प्रदे देवी मुक्ति मुक्ति प्रदायिनी।पुते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।मंत्र जप के बाद इस पूरी सामग्री को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें। इस प्रयोग से कुछ ही दिनों में आपको अचानक धन लाभ होगा।〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

ग्रस्तोदय (उपच्छायी) खग्रास #चन्द्रग्रहण (शंका समाधान) By वनिता कासनियां पंजाब 〰️〰️🌼〰️〰️🌼🌼〰️〰️🌼〰️〰️ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा 8 नवम्बर 2022 मंगलवार को यह ग्रहण सम्पूर्ण भारत में ग्रस्तोदय रूप में दिखाई देगा। इस ग्रहण का आरम्भ (स्पर्श) भारत में कही भी दिखाई नहीं देगा। क्योंकि यह ग्रहण चन्द्रोदय से पहले ही आरम्भ हो जायेगा। ग्रहण का मोक्ष केवल पूर्वी भारत में दिखाई देगा। देश के बाकी भाग में मोक्ष का आशिंक रूप ही दिखेगा। ग्रहण का सूतक 8 नवम्बर 2022 ई. को सूर्योदय के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगा। सामान्यतः चन्द्रग्रहण का सूतक स्पर्श से 9 घण्टे पूर्व माना जाता है। परन्तु ग्रस्तोदय चन्द्र ग्रहण होने से पूरे दिन सूतक माना जायेगा। ग्रस्तोदय चन्द्र ग्रहण में चन्द्रोदय से ग्रहण समाप्ति तक के काल को ही पर्व काल माना जाता हैं अतः चन्द्रोदय को ही ग्रहण आरम्भ मानकर सभी धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन व अनुष्ठान ग्रहण मोक्ष पर करना चाहिये। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यह ग्रहण घटित होने से कार्तिक पूर्णिमा के स्नान व दान का महत्व अनन्त हो जायेगा। ग्रहण (स्पर्श) प्रारम्भ👉 दिन 2 बजकर 39 मिनट से। खग्रा...

श्री बांके बिहारी मंदिर इतिहास . . . बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था।बाँके बिहारी मन्दिर : यह वृन्दावन का सबसे प्रमुख मन्दिर है। श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करे बिना तो वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रह जाती है। श्री बाँके बिहारी जी को स्वामी श्री हरिदास जी महारज ने निधिवन में प्रकट किया था। पहले बिहारी जी की सेवा निधिवन में ही होती थी। वर्तमान मन्दिर का निर्माण सन् 1864 में सभी गोस्वमियों के सहयोग से कराया गया। तब से श्री बाँके बिहारी जी महाराज इसी मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँ पर मंगला आरती साल में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर होती है। अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन, ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, हरियाली तीज पर स्वर्ण-रजत हिण्डोला, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा पर बंशी एवं मुकुट धारण, बिहार पंचमी, होली आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं।श्री बाँकेबिहारी जी का संक्षिप्त इतिहास:-श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नही चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया। मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया। सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया। तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है। आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए। परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं। श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय । इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्री बाँकेविहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर में कपट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं।इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। कारण–रात्रि में रास करके यहां बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं। स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे। एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे। ठाकुर जी के दर्शन प्रातः 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायं 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक होते हैं। विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं– एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे। कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर वो रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु में घर जा रही हुँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े। गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर दोनों ने संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।झाँकी का अर्थ:-श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं, और भी किंवदंती हैं।एक बार एक भक्त देखता रहा कि उसकी भक्ति के वशीभूत होकर श्रीबाँकेबिहारी जी भाग गये। पुजारी जी ने जब मन्दिर की कपाट खोला तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी नहीं दिखाई दिये। पता चला कि वे अपने एक भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे। इस मन्दिर में कृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है। पहले ये निधुवन में ही विराजमान थे। बाद में वर्तमान मन्दिर में पधारे हैं। यवनों के उपद्रव के समय श्रीबाँकेबिहारी जी गुप्त रूप से वृन्दावन में ही रहे, बाहर नहीं गये। श्रीबाँकेबिहारी जी का झाँकी दर्शन विशेष रूप में होता है। यहाँ झाँकी दर्शन का कारण उनका भक्तवात्सल्य एवं रसिकता है।एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि यहाँ मंगल आरती नहीं होती। यहाँ के गोसाईयों का कहना हे कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। उस समय इन्हें जगाना उचित नहीं है। By वनिता कासनियां पंजाबब ोलिये हमारे श्री बाँके बिहारी की जयजै जै श्री कृष्ण की जय राधेयय्य्य।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम 🚩🚩🚩🚩

श्री बांके बिहारी मंदिर इतिहास . . .  बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।  बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था। बाँके बिहारी मन्दिर : यह वृन्दावन का सबसे प्रमुख मन्दिर है। श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करे बिना तो वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रह जाती है।  श्री बाँके बिहारी जी को स्वामी श्री हरिदास जी महारज ने निधिवन में प्रकट किया था। पहले बिहारी जी की सेवा निधिवन में ही होती थी। वर्तमान मन्दिर का निर्माण सन् 1864 में सभी गोस्वमियों के सहयोग से कराया गया।  तब से श्री बाँके बिहारी जी महाराज इसी मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँ पर मंगला आरती साल में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर होती है।  अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन, ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, हरियाली तीज पर स्वर्ण-रजत हिण्डोला, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा पर बंशी एवं मुकुट धारण, बिहार पंचमी, होली आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं। श्री बाँ...

कलयुग में रामनाम की महिमा!!!!!*नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥कहते हैं कि कलियुग ने आने के लिए राजा परीक्षित से बहुत अनुनय-विनय की। कहा कि घबराइए नहीं महाराज, हम किसी को तंग नहीं करेंगे, बस 'स्वर्ण' में घर बसाएंगे। हमारे साथ दो-चार संगी, साथी होंगे- राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम-वासना आदि। अपने गुण बताते हुए कलियुग ने कहा- सुनो हमारी महिमा! हमारे राज में जो प्रभु का 'केवल' नाम ले लेगा, उसकी मुक्ति निश्चित है। और तो और, मन से सोचे गए पाप की हम सजा नहीं देंगे, पर मन से सोचे गए पुण्य का फल जरूर देंगे। राजा परीक्षित ने कलियुग को आने दिया तो सबसे पहले वह राजा के सोने के मुकुट में ही विराजमान हुआ और सबसे पहले उन्हें ही मृत्यु की ओर धकेल दिया।कलियुग को सभी कोसते हैं, सभी क्रोध, राग, द्वेष और वासना से ग्रस्त हैं। कोई कहता है काश, हम सतयुग में पैदा हुए होते। कोई त्रेता और द्वापर युग के गुण गाता है। तुलसीदास ने जन-मानस की हालत देखकर समझाया कि कलियुग में बेशक बहुत सी गड़बडि़याँ हैं, मगर उन सबसे बचने का उपाय जितनी सरलता से कलियुग में मिल सकता है, उतनी सरलता से किसी और काल में नहीं मिला। पहले प्रभु को पाने के लिए ध्यान करना पड़ता था। त्रेता में योग से प्रभु मिलते थे, द्वापर में कर्मकांड का मार्ग था। ये सभी मार्ग नितांत कठिन और घोर तपस्या के बाद ही फलीभूत होते हैं, पर कलियुग में ईश्वर को प्राप्त करना पहले के मुकाबले बड़ा ही सरल हो गया है।कैसे भाई? हर मत और संप्रदाय ने गुण गाया है 'नाम' का। यह वह मार्ग है जहाँ विविध संप्रदाय एकमत हो जाते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा:कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।नाम जप में किसी विधिविधान, देश, काल, अवस्था की कोई बाधा नहीं है। किसी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, कैसे भी नाम जप किया जा सकता है। इस नाम जप से हर युग में भक्तों का भला हुआ। श्रीभद् भागवत में कथा आती है अजामिल ब्राह्माण की, जिसने सतयुग में घोर पाप किया। पत्नी के होते हुए वेश्या के पास रहा। वेश्या के पुत्र का नाम नारायण रख दिया। मरते समय पुत्र को पुकारा, 'नारायण!' तो स्वयं नारायण आ गए। ऐसी ही एक और कथा है गज ग्राह युद्ध की। गज ने अपनी सूंड तक अपने को डूबते पाया तो पुकारा 'रा!' इतनी भी शक्ति नहीं थी कि पूरा 'राम' कह दे। पर प्रभु ने भाव समझ लिया और गज के प्राण बचा लिए। त्रेता में वाल्मीकि ने नाम जप किया तो उल्टा। 'राम' कह न सके, डाकू थे, मांसाहारी थे, सो 'मरा' कहना सरल लगा, तोते की तरह रटते रहे तो स्वयं श्री राम पधारे कुटिया में। 'उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्मा समाना।' द्वापर युग में दौपदी ने भरी सभा में रोते हुए हाथ खड़े कर दिए। सभी का सहारा छोड़ दिया तो कृष्ण की याद आई। श्रीकृष्ण चीर रूप में प्रकट हुए।कलियुग में तो नाम जप के भक्तों की भरमार है। कबीर, मीरा, रैदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान, नानक, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि आदि। राजा परीक्षित के वैद्य धन्वन्तरि तो कहते थे कि 'नाम जप' औषधि है, जिससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। इस औषधि का लाभ गांधीजी ने भी तो उठाया। हर अवस्था में, चिंता में, रोग में उन्होंने 'राम नाम' का आश्रय लिया।लेकिन नाम जप का यह अर्थ नहीं कि पाप करने की छूट मिल गई। नाम से पापों का विनाश होता तो है, पर तभी जब व्यक्ति के हृदय में पिछले पापों के प्रति प्रायश्चित और उन्हें दोबारा न करने का संकल्प हो। नाम जप की औषधि के साथ परहेज भी आवश्यक है। नाम जपते रहो, क्रोध स्वत: दूर हो जाएगा। जप में बुरी प्रवृत्तियां पीछे हटती जाती हैं। उन्हें जबरन हटाने का प्रयास न करो, बस नाम जपो, प्रेम से।रामचरितमानस में भी बाबा तुलसी ने लिखा है,,,,सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥ द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥* कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥ वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥* कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥By वनिता कासनियां पंजाबभावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम🚩🚩🚩🚩

कलयुग में रामनाम की महिमा!!!!! *नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥ कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥ कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥ कहते हैं कि कलियुग ने आने के लिए राजा परीक्षित से बहुत अनुनय-विनय की। कहा कि घबराइए नहीं महाराज, हम किसी को तंग नहीं करेंगे, बस 'स्वर्ण' में घर बसाएंगे। हमारे साथ दो-चार संगी, साथी होंगे- राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम-वासना आदि। अपने गुण बताते हुए कलियुग ने कहा- सुनो हमारी महिमा! हमारे राज में जो प्रभु का 'केवल' नाम ले लेगा, उसकी मुक्ति निश्चित है।  और तो और, मन से सोचे गए पाप की हम सजा नहीं देंगे, पर मन से सोचे गए पुण्य का फल जरूर देंगे। राजा परीक्षित ने कलियुग को आने दिया तो सबसे पहले वह राजा के सोने के मुकुट में ही विराजमान हुआ और सबसे पहले उन्हें ही मृत्यु की ओर धकेल दिया। कलियुग को सभी कोसते हैं, सभी क्रोध, राग, द्वेष और वासना से ग्रस्त हैं। कोई कहता है काश, हम ...

कौन हैं मनुष्य के कर्मों के साक्षी?संसार-यात्रा में जीव को प्राप्त होने वाले विभिन्न लोक और योनियां!!!मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसमय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी-न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी-न-किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण–आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है। इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है––माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।–मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।–छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।–अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।–विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।–विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।–देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान विष्णु की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमधाम को प्राप्त करता है।भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’ (नारदपुराण)भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है–जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।By वनिता कासनियां पंजाबयह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है–‘अंत मति सो गति।’इसी सत्य को प्रकट करता हुआ एक सुन्दर भजन है–इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले,गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से निकले,श्रीगंगा जी का तट हो,यमुना का वंशीवट हो,मेरा सांवरा निकट हो,जब प्राण तन से निकले,इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले।।।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।

कौन हैं मनुष्य के कर्मों के साक्षी? संसार-यात्रा में जीव को प्राप्त होने वाले विभिन्न लोक और योनियां!!! मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है। ‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’ वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो। सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं। सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसम...

हिन्दू व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं??????By वनिता कासनियां पंजाब:-व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है। हेमादि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। 1.नित्य व्रत उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है। 2.नैमिक्तिक व्रत उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं। 3.काम्य व्रत किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं। व्रतों का वार्षिक चक्र :-1.साप्ताहिक व्रत : सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है। 2.पाक्षिक व्रत : 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए। 3.त्रैमासिक : वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं। 4.छह मासिक व्रत : चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा 5.वार्षिक व्रत : वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में 'श्रावण माह' महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।उपवास के प्रकार:- 1.प्रात: उपवास, 2.अद्धोपवास, 3.एकाहारोपवास, 4.रसोपवास, 5.फलोपवास, 6.दुग्धोपवास, 7.तक्रोपवास, 8.पूर्णोपवास, 9.साप्ताहिक उपवास, 10.लघु उपवास, 11.कठोर उपवास, 12.टूटे उपवास, 13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं। 1.प्रात: उपवास- इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है। 2.अद्धोपवास- इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता। 3.एकाहारोपवास- एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि। 4.रसोपवास- इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है। 5.फलोपवास- कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए। 6.दुग्धोपवास- दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है। 7.तक्रोपवास- तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है। 8.पूर्णोपवास- बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है। 9.साप्ताहिक उपवास- पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है। 10.लघु उपवास- 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं। 11.कठोर उपवास- जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है। 12.टूटे उपवास- इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए। 13.दीर्घ उपवास- दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की समस्या आ जाने की संभावना हो जाती है।।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम🚩🚩🚩🚩

हिन्दू व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं?????? By वनिता कासनियां पंजाब:- व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है।  हेमादि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य।   1.नित्य व्रत उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।   2.नैमिक्तिक व्रत उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्...