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पत्नी ने पति से कहा, "कितनी देर तक समाचार पत्र पढ़ते रहोगे ?यहाँ आओ और अपनी प्यारी बेटी को खाना खिलाओ" पति ने समाचार पत्र एक तरफ़ फेका और बेटी की ध्यान दिया,बेटी की आंखों में आँसू थे और सामने खाने की प्लेट... । बेटी एक अच्छी लड़की है और अपनी उम्र के बच्चों से ज्यादा समझदार ।पति ने खाने की प्लेट को हाथ में लिया और बेटी से बोला,"बेटी खाना क्यों नहीं खा रही हो?आओ बेटी मैं खिलाऊँ." बेटी जिसे खाना नहीं भा रहा था, सुबक सुबक कर रोने लगी और कहने लगी,"मैं पूरा खाना खा लूँगी पर एक वादा करना पड़ेगा आपको." ।"वादा", पति ने बेटी को समझाते हुआ कहा, "इस प्रकार कोई महँगी चीज खरीदने के लिए जिद नहीं करते." ।"नहीं पापा, मैं कोई महँगी चीज के लिए जिद नहीं कर रही हूँ." फिर बेटी ने धीरे धीरे खाना खाते हुये कहा,"मैं अपने सभी बाल कटवाना चाहती हूँ." । पति और पत्नी दोनों अचंभित रह गए और बेटी को बहुत समझाया कि लड़कियों के लिए सिर के सारे बाल कटवा कर गंजा होना अच्छा नहीं लगता है ।पर बेटी ने जवाब दिया, "पापा आपके कहने पर मैंने सड़ा खाना, जो कि मुझे अच्छा नहीं लग रहा था, खा लिया और अबवादा पूरा करने की आपकी बारी है." । अंततः बेटी की जिद के आगे पति पत्नी को उसकी बात माननी ही पड़ी ।अगले दिन पति बेटी को स्कूल छोड़ने गया ।बेटी गंजी बहुत ही अजीब लग रही थे. स्कूल में एक महिला ने पति से कहा, "आपकी बेटी ने एक बहुत ही बड़ा काम किया है । मेरा बेटा कैंसर से पीड़ित है और इलाजमें उसके सारे बाल खत्म हो गए हैं ।वह् इस हालत में स्कूल नहीं आना चाहता था क्योंकि स्कूल में लड़के उसे चिढ़ाते हैं. पर आपकी बेटी ने कहा कि वह् भी गंजी होकर स्कूल आयेगी और वह् आ गई ।इस कारण देखिये मेरा बेटा भी स्कूल आ गया ।आप धन्य हैं कि आपके ऐसी बेटी है " । पति को यह सब सुनकर रोना आ गया और उसने मन ही मन सोचा कि आज बेटी ने सीखा दिया कि प्यार क्या होता है ।इस पृथ्वी पर खुशहाल वह नहीं हैं जो अपनी शर्तों पर जीते हैं बल्कि खुशहाल वे हैंजो, जिन्हें वे प्यार करते हैं, उनके लिए बदल जाते है ! प्यार के लिए जो ख़ुशी से खुद को बदल दे वो ही सच्चा प्यार होता है।अगर खुद को बदलना एक मजबूरी लगे तो वो प्यार नहीं एक समझौता है।

पत्नी ने पति से कहा, "कितनी देर तक समाचार पत्र पढ़ते रहोगे ? यहाँ आओ और अपनी प्यारी बेटी को खाना खिलाओ"   पति ने समाचार पत्र एक तरफ़ फेका और बेटी की ध्यान दिया,बेटी की आंखों में आँसू थे और सामने खाने की प्लेट... ।   बेटी एक अच्छी लड़की है और अपनी उम्र के बच्चों से ज्यादा समझदार । पति ने खाने की प्लेट को हाथ में लिया और बेटी से बोला,"बेटी खाना क्यों नहीं खा रही हो? आओ बेटी मैं खिलाऊँ."   बेटी जिसे खाना नहीं भा रहा था, सुबक सुबक कर रोने लगी और कहने लगी,"मैं पूरा खाना खा लूँगी पर एक वादा करना पड़ेगा आपको." । "वादा", पति ने बेटी को समझाते हुआ कहा, "इस प्रकार कोई महँगी चीज खरीदने के लिए जिद नहीं करते." । "नहीं पापा, मैं कोई महँगी चीज के लिए जिद नहीं कर रही हूँ." फिर बेटी ने धीरे धीरे खाना खाते हुये कहा, "मैं अपने सभी बाल कटवाना चाहती हूँ." ।   पति और पत्नी दोनों अचंभित रह गए और बेटी को बहुत समझाया कि लड़कियों के लिए सिर के सारे बाल कटवा कर गंजा होना अच्छा नहीं लगता है । पर बेटी ने जवाब दिया, "पापा आपके कहने पर मैंने स...

क्या है ये दो पल का प्यार ??क्या हो सकता है किसी को दो पल में किसी से प्यार? नहीं जानते? चलिए हम बताते हैं आपको... फिर आप खुद ही अंदाज़ लगा लीजिएगा कि किसी को दो पल के मुलाकत में प्यार होता है या नहीं।ये प्रेम कहानी बिहार मे बसी एक छोटा सा गांव महरैल की है...जितनी प्यारी ये गाँव है..उतनी ही प्यारे यहाँ के रहने वाले लोग है ।यहाँ के लोग अपने जरूरत की समान लाने, गाँव से थोड़ा दूर बसी एक बाजार जाते है।एक दिन महरैल गाँव के एक लड़का जिसका नाम अभिषेक है ।वो भी रोज जाता था। एक समय आया की वो रोज सज-धज के उस बाजार जाने लगा...अब आप पूछोगे....सज धज के क्यों जाने लगा वो ???तो बात ये थी कि एक दिन जब वो बाजार से गुजर रहा था तो उसे एक लड़की दिखी...अभिषेक उस लड़की से अपनी नजर हटा ही नही रहे थे....और फिर जब कुछ देर तकनजर नहीं हटाए तो सामने से लड़की की भी नजर पड़ी उस लड़के पे...फिर क्या....दोनों एक दूसरे को देखते रहे...अब ये दो पल की यू इस तरह देखा-देखि मैं ही शहजादे को प्यार हो गया....फिर क्या उस दिन के बाद रोज अभिषेक बाजार सज-धज के जाने लगे...और फिर वो इधर उधरदेखे जा रहा था..तभी दूसरी और से एक लड़की गुजर रही थी ..और उस लड़के क चेहरे पे मुस्कुराहट बया कर दी कि अभिषेक का दिलइन्ही का इंतज़ार कर रहा था...वो लड़की अपने मम्मी के साथ आती थी..हाथ मे थेली थी..जिसे देख के लग रहा था कि वो भी सामान लेने आयीहै...वो लड़का उसे बस देखे जा रहा था..कुछ देर में वो चले जाती है।ऐसे ही वो रोज बाजार आती और लड़का उस के आने से पहलेवहा आ जाता..और जब तक लड़की बाजार मे रहती वो उसे ही देखते रहता बस..और फिर उस के जाने के बाद वो भी चला जाता....वो रोज कोशिश करता बात करने की लेकिन वो जैसे ही बात करने जाता कि वो चल देती थी या सामने कोई आ जाता था।वो दो पल का वक़्त मैं वो लड़का बस कोशिशकरता कि कैसे वो अपने दिल की बात उस लड़की से कहे...फिर एक दिन किस्मत ने भी उसका साथ दे दिया और एक दिन वो अकेली ही बाजार आयी बस फिर क्या वो लड़का उस लड़की के पास गया..और उसका का करिश्मा देखो..दोनों एक साथ बोल पड़े कि...मुझे कुछ कहना हैक्या पल था वो...फिर क्या...लड़का डर गया..उसे लगा कहीं इसे बुरा न लग गया हो की मैं इसे रोज यहाँ देखता रहता हूँ या कोई औरबात..वो डर के उस लड़की के तरफ देखा..और धीमी आवाज में उसे कहा ..बोलो क्या हुआ....लड़की फिर कहती है तुम बोलो कि क्या कहना है ? लड़का डर रहा था कुछ कहने से अब और उसने पहले उसे ही कह दिया की तुम बोलो पहलेफिर अचानक से दोनों एक ही साथ अपनी-अपनी दिल की बाते बोल दी...लड़का सुनते ही अपना होश ही खो दियाक्योंकि उसे कभी लगा ही नही था की...लड़की भी उससे प्यार करती है। कुदरत का खेल तो देखो...लड़की भी रोज इसीलिए आती थी कि..वो रोज उस लड़के को देख सके...प्यार दोनों मैं पहले दिन के एक पल से हीहो गया था। लेकिन एक दूसरे को बताने का मौका नहीं मिल रहा था।फिर क्या....रोज यही आने लगे एक दूसरे से मिलने लगे।कुछ समय बाद दोनों ने अपने-अपने घर में बात की और दोनों ने शादी कर ली.....और इस तरह से वो दोनों हमेशा के लिए साथ हो गए और ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे।इससे ये पता चलता है कि प्यार करने में साल या महीना नहीं लग जाता है प्यार तो वो खुसी है, वो एहसास है, वो विश्वास है जो एक पल में और बस एक नजर में ही किसी को किसी से हो जाता है।

क्या है ये दो पल का प्यार ?? क्या हो सकता है किसी को दो पल में किसी से प्यार? नहीं जानते? चलिए हम बताते हैं आपको...   फिर आप खुद ही अंदाज़ लगा लीजिएगा कि किसी को दो पल के मुलाकत में प्यार होता है या नहीं। ये प्रेम कहानी बिहार मे बसी एक छोटा सा गांव महरैल की है...जितनी प्यारी ये गाँव है..उतनी ही प्यारे यहाँ के रहने वाले लोग है । यहाँ के लोग अपने जरूरत की समान लाने, गाँव से थोड़ा दूर बसी एक बाजार जाते है। एक दिन महरैल गाँव के एक लड़का जिसका नाम अभिषेक है । वो भी रोज जाता था। एक समय आया की वो रोज सज-धज के उस बाजार जाने लगा... अब आप पूछोगे....सज धज के क्यों जाने लगा वो ??? तो बात ये थी कि एक दिन जब वो बाजार से गुजर रहा था तो उसे एक लड़की दिखी... अभिषेक उस लड़की से अपनी नजर हटा ही नही रहे थे....और फिर जब कुछ देर तक नजर नहीं हटाए तो सामने से लड़की की भी नजर पड़ी उस लड़के पे...फिर क्या....दोनों एक दूसरे को देखते रहे...अब ये दो पल की   यू इस तरह देखा-देखि मैं ही शहजादे को प्यार हो गया....फिर क्या उस दिन के बाद रोज अभिषेक बाजार सज-धज के जाने लगे...और फिर वो इधर उधर देखे जा रहा था..तभी दूसरी और...

प्यार वो एहसास है, जो हर किसी को नहीं होता।प्यार वो महसूस है। जिसके अंदर खो जाने का दिल करता है। यही एक एहसास मैं आपको बताना चाहती हूँ।शाम का समय था। मैं अपने दोस्त का इंतजार कर रहा था। स्टेशन के बाहर।हमलोग का बाहर कही घूमने जाने का प्लान था और मैं जल्दी पहुँच गया था। कुछ समझ नही आ रहा था की मैं क्या करूँ। मैं स्टेशन के पास जा के बैठ गया, तभी कुछ ऐसा हुआ कि मेरी जिन्दगी एक अलग मोड़ लेने वाली थी।स्टेशन की तरफ मैं देख रहा था की मेरा दोस्त आया की नहीं तभी अचानक से मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी।वो जो वक़्त था मैं पूरी तरह कुछ देर के लिए थम सा गया था। मैं सब भूल गया था की मैं कहा हूँ क्यों हूँ ?बस मेरी आँखे उस लड़की की तरफ से हट ही नहीं रही थी और इस तरह से मैं उसे देखता ही जा रहा था ।उसकी मासूम चेहरा, उसकी छोटी-छोटी आंखी, उसके मासूम सा चेहरे पे वो मासूम सी उसकी हंसी जैसे मानो कोई परी हो वो..उसे देख पहली नज़र मे मानो दिल को कुछ होने लगा था।क्या वो प्यार था?? मुझे नहीं पता बस दिल बोल रहा था कि मेरा दोस्त कुछ देर बाद आये या ये वक़्त रुक जाए।मुझे उसका नाम जानना था। उसके बारे में बहुत कुछ पता करने को दिल कर रहा था लेकिन कैसे करूँ ये समझ ही नहीं आ रहा था।जब कुछ समझ नहीं आया तब मैंने बस भगवान से प्रार्थना किया की मुझे ये लड़की मेरी जिन्दगी में चाहिए।वो जा रही थी। मेरी आँखों से दूर मुझे रोकना था उसे। उससे बातें करना था। उससे दोस्ती करनी थी और उसे अपने दिल की बात बतानी थी।लेकिन कैसे ??? यही सवाल बस बार-बार मेरे मन में आ रहा था और मुझे बैचैन किये जा रहा था।मैंने फिर सोच लिया कि मेरी आँखों से दूर होने से पहले मुझे इसका नाम पता चल जाये तो मैं इससे अपना बनूँगा और शायद भगवान् ने ही उसे भेजा होगा मेरे लिए ये मैं समझूंगा तभी भगवन ने चमत्कार कर दिया..पीछे से आवाज आया प्रिया मैं यहां हूँ।फिर वो पीछे देखि तो मैंने देखा वहां से एक लड़की आवाज दी और वो उस क पास चली गयी..तभी मैं समझा उस लड़की का नाम प्रिया था।मैं खुश हो गया और उस लड़की को मन किया जा के धन्यवाद बोल दू क्योंकि उसी के वजह से मुझे उस का नाम पता चला।बस तभी मैंने ठान ली अब उसे अपना बनाना है, उसे अपनी जिन्दगी में लाना है।फिर तभी मै उसके पिछे जाने लगा कि अचानक ही पीछे से एक हाथ आया।पीछे देखा तो दोस्त आ गया था। अब मैं क्या करूँ समझ नहीं आ रहा था..मैं क्या बोलूँ उससे..कैसे मना करूँ उससे?..कैसे जाऊ मैं उस के पीछे ?मैं इसी सोच में लगा रहा रहा तब तक वो मेरी आँखों से दूर जा चुकी थी दिल मानो रोने लगा था और तभी मानो ऐसा लगा कि जैसे सब कुछ एक सपना सा था बस और आँखे खुल गया तो सपना टूट गया।मैं वहा से चला तो गया अपने दोस्त के साथ लेकिन पूरी रास्ते बस उसी के बारे में सोचता रहा।मानो मेरा दिल अब उसके ख्याल से निकलने को तैयार ही नहीं था।दूसरे दिन मैं कॉलेज लिए तैयार हो गया और मैं कॉलेज पंहुचा।और बेंच पे जा क बैठ गया..तभी दोस्त ने बुलाया और कहा देख अपने कॉलेज में एक नई लड़की आयी है। मेरा मन अभी भी बस उसी के ख्यालों मे डूबा हुआ था। आँखों से उस का चेहरा मनो हट ही नही रहा था...वो बार बार मुझे आवाज दिये जा रही था।तभी मुझे गुस्सा आया और पीछे उससे बोलने जा ही रहा था कि मैं रुक सा गया।मेरी नजर मानो फिर से एक बार सपनों मे चला गया। मैंने देखा की वही थी।मानो जैसे मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा मैं खुद को रोक ही नहीं पा रहा था और मेरे समझ में ही नहीं आ रहा था की मैं क्या करू ?क्या बोलता मैं, बस जा के अपने दोस्त के गले लग गया..और हंसने लगा...तभी पता चला वही वह नई लड़की थी जो कॉलेज में आज पहला दिन आयी थी।मैं तो मानो हवा मे उड़ने लगा..फिर मैंने एक दिन अपने दोस्त को बताया की ऐसा ऐसा है..उसने कहा जा के बोल दे उसे अपने दिल की बात..लेकिन मैं डरता था। कि वो क्या कहेगी..क्या लगेगा उसे..यही सोच के मैं हमेशा रुक जाता था।मैं सोचने लगता था कि कही वो मेरी बातें सुन के मुझसे दूर न हो जाए।मैं उससे दूर नहीं होना चाहता था। मुझे ये एहसास हो गया था कि शायद वो भी मुझे पसंद करती थी। लेकिन वो कभी कुछ नहीं कहती थी। उससे लगता कि मेरे मनमै उस क लिए कुछ नहीं है। लेकिन वो क्या जाने कि उसे पहली नजर में देख के ही मैंने उसे अपना दिल दे चुका था।दिन बीतते गए हमलोग एक अच्छे दोस्त की तरह साथ रहते और बाते करते थे..लेकिन न कभी मुझे हिम्मत हुआ उससे कुछ भी कहने का ना और ही उसे ....वक़्त बीत गया और इस तरह हमलोग की पढ़ाई पूरी हो गयी।लेकिन मेरे दिल मे उसके के लिए अभी भी पहला और आखरी प्यार था और शायद उस के लिए भी। और इस तरह सेहमे सबको अलग अलग कंपनी मे जॉब लग गई थी तभी बस एक दिन मैंने सोच लिया कि अब बस.. मैं उससे कल जा के दिल की बात बता ।दूंगा.... मैं अगले दिन सुबह उठा और मैंने उसे फ़ोन किया और उससे कहा की मुझे मिलना है उससे ..उसने मिलने क लिए हां कर दिया और इस बात से मुझे बहुत ख़ुशी मिला।हमलोग ने एक समय निर्धारित किया था और मैं समय से पहले वहां उसका इंतजार कर रहा था ....तभी मेरी नजर उस पे पड़ी.. वही कपडे..वही बैग..वही छोटी-छोटी आँखे और चेहरे पे वही प्यारी से मुस्कान, मानो ऐसा लग रहा था..की वही पहला दिन हो..जब मैंने उसे पहली बार देखा था..वो धीरे धीरे आ रही थी।मैं तो बस उसे देखता ही जा रहा था..फिर वो पास आती है..फिर वो मेरे सामने बैठ जाती है..तभी बस..मैंने उससे कहा की मुझे कुछ कहना है उससे।फिर तभी उसने भी कह दिया की मुझे भी कुछ कहना है तुम्हें ...मैं खुश हो गया.. मुझे लगा की आज वो भी अपने दिल की बात बोल देगी...फिर मैंने उससे कहादिया कि तुम पहले बोल दो...उसने तो पहले मना किया पहले बोलने से..लेकिन मैंने ही जिद कर दिया... कि पहले तुम बोले और वो बोलने जा रही थी।मानो मेरी सांस रुक गए थे..उसकी बाते सुनने क लिये...सब कुछ थम सा गया...बस ऐसा लगा मैं और वो..और कुछ नही है आस-पास...फिर उसने अपने बैग से एक कार्ड निकाला..और दिया मुझे...वो जो पल था।वही पहला पल..जब मुझे लगा कि मेरा सपना था..और सपना टूटगया...उस कार्ड मैं उसकी शादी का आमंत्रण था...बस..फिर क्या..सब कुछ वहीं रुक गया.... शायद मैंने बहुत देर कर दी उससे अपनी दिल की बात बताने मे..श्याद बहोत-बहोत देर... फिर उसने मुझसे पूछा.. कि तुम क्या कहना चाहते थे ?मैं क्या कहता तब..बात बदल दी..और वो चली गयी...और मैं वही बैठे रह गया....मुझे उसे अपना बनाने का बस एक सपना ही था शायद.......जो एक समय पे आ क टूट गया....वो आज का दिन औरपहला दिन...मानो क्यों आया था मेरी जिन्दगी मैं अब तक ये बात समझ नही आया....पहला दिन भी एक सपने की तरह आई और कुछ देर बाद टूट गयी...और ये आज का पल..जो फिर से एक सपना बनकर पल मै टूट गया........इसीलिए दोस्तों कभी भी अपनी दिल की बात बताने मे देर ना करो... वरना इतना देर हो जाता है कि....अपने प्यार को बस सपने मैं ही अपना बनाना पड़ जाता है...

प्यार वो एहसास है, जो हर किसी को नहीं होता। प्यार वो महसूस है। जिसके अंदर खो जाने का दिल करता है। यही एक एहसास मैं आपको बताना चाहती हूँ। शाम का समय था। मैं अपने दोस्त का इंतजार कर रहा था। स्टेशन के बाहर। हमलोग का बाहर कही घूमने जाने का प्लान था और मैं जल्दी पहुँच गया था।   कुछ समझ नही आ रहा था की मैं क्या करूँ। मैं स्टेशन के पास जा के बैठ गया, तभी कुछ ऐसा हुआ कि मेरी जिन्दगी एक अलग मोड़ लेने वाली थी। स्टेशन की तरफ मैं देख रहा था की मेरा दोस्त आया की नहीं तभी अचानक से मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी। वो जो वक़्त था मैं पूरी तरह कुछ देर के लिए थम सा गया था। मैं सब भूल गया था की मैं कहा हूँ क्यों हूँ ? बस मेरी आँखे उस लड़की की तरफ से हट ही नहीं रही थी और इस तरह से मैं उसे देखता ही जा रहा था । उसकी मासूम चेहरा, उसकी छोटी-छोटी आंखी, उसके मासूम सा चेहरे पे वो मासूम सी उसकी हंसी जैसे मानो कोई परी हो वो..उसे देख पहली नज़र मे मानो दिल को कुछ होने लगा था। क्या वो प्यार था??   मुझे नहीं पता बस दिल बोल रहा था कि मेरा दोस्त कुछ देर बाद आये या ये वक़्त रुक जाए। मुझे उसका नाम जानना था। उसके बारे में बहुत...

कैसे करें पूजा । वनिता कासनियां पंजाब द्वारा पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके करनी चाहिये, हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में करें।पूजा जमीन पर आसन पर बैठकर ही करनी चाहिये, पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक,एक घी का और एक तेल का रखें।. पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।पूजाघर में मूर्तियाँ 1 ,3 , 5 , 7 , 9 ,11 इंच तक की होनी चाहिये, इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी, की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिये।. गणेश या देवी की प्रतिमा तीन, तीन शिवलिंग, दो शालिग्राम, दो सूर्य प्रतिमा, दो गोमती चक्र। दो की संख्या में कदापि न रखें। अपने मन्दिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें एवं खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।मन्दिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मन्दिर में पर्दा अति आवश्यक है अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मन्दिर में कदापि न रखेंविष्णु की चार, गणेश की तीन, सूर्य की सात, दुर्गा की एक एवं शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिये कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें यदि आपके घर में श्रीफल कलश उग जाता है तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।. मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।. घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें झाड़ू लांघना, पाँव से कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।. घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें। क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मीजी घर का निरीक्षण करती हैं यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।. कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिये, जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो: वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें।. घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।. सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है।साबुत धनिया, हल्दी की पांच गांठें,11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है,उसमे साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिये।. घर में यदा कदा केसर के छींटे देते रहने से वहाँ धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पत्ते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिये।. एक मोती शंख, पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर, एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।. घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में बाये कंधे पर गमछा रखना चाहिये।

कैसे करें पूजा । वनिता कासनियां पंजाब द्वारा पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके करनी चाहिये, हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में करें। पूजा जमीन पर आसन पर बैठकर ही करनी चाहिये, पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक,एक घी का और एक तेल का रखें। . पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें। पूजाघर में मूर्तियाँ 1 ,3 , 5 , 7 , 9 ,11 इंच तक की होनी चाहिये, इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी, की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिये। . गणेश या देवी की प्रतिमा तीन, तीन शिवलिंग, दो शालिग्राम, दो सूर्य प्रतिमा, दो गोमती चक्र। दो की संख्या में कदापि न रखें। अपने मन्दिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें उपहार, काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियाँ न रखें एवं खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरन्त हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है। मन्दिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मन्दिर में पर्दा अति आवश्यक है अपने पूज्य माता-पिता तथा पित्रों का फोटो मन्दिर में कदापि न रखें विष्णु की चार, गणेश की तीन, सूर्य की सात, दुर्ग...

प्यार में इतना दर्द किसी को ना मिलेनमस्ते दोस्तों आज मै एक बार फिर आप के बीच लेकर आई हूँ एक बेहद ही प्यारी लव स्टोरी तो इसे कृपया पूरा पढ़े और कैसी लगी ये Sad love story in Hindi जरुर बताये,ये कहानी एक ऐसे लड़के की जिसे उसके प्यार में दो बार इंकार मिला लेकिन आज भी शायद उस लड़की को भुला नहीं पाया तो आइये इसे मैं और आप साथ पढ़ते है और जानते है कि क्या है आदित्य और ख़ुशी की sad love story;आदित्य, पढ़ने में थोड़ा average और लड़कियों के मामले में थोडा कच्चा था उसकी मुलाकात 11th स्टैंडर्ड में ख़ुशी से हुई | ख़ुशी, पढ़ने में अच्छी और अपने Future के बारे में बहुत सोचने वाली लड़की थीधीरे-धीरे 11th ख़त्म होते-होते वो अच्छे दोस्त बन गए थे और 12th में आदित्य ने ख़ुशी से अपने प्यार का इजहार कर दिया लेकिन ख़ुशी ने इंकार करते हुए बड़े प्यार से उसे समझायाकि इससे हम दोनो की जिंदगी खराब हो जाएगी क्योंकि हम नाही क्लास में पढ़ाई कर पाएंगे और नाही घर पर, आदित्य को ख़ुशी की बात थोड़ी बुरी लगी लेकिन फिर उसे समझ में आ गया की ख़ुशी सही कह रही हैऔर उससे अपने Future और पढाई पर Focus करना शुरू कर दिया और अब आदित्य किसी भी लड़की से बात नहीं करता था यहाँ तक की ख़ुशी से भी नहीं क्योंकि उसे लगता था की वो जब भी ख़ुशी से बात करता हैतब उसे अच्छा नही लगता था क्योंकि कुछ दिन पहले तक ख़ुशी उसकी Crush थी और आज वो उसे रिजेक्ट कर चुकी थी और आदित्य इन सब बातों को नजर-अंदाज करते हुए अपने इंटरमीडिएट की परीक्षा में मेहनत करके पूरे स्कूल में फर्स्ट आ गया।बाद में आदित्य दिल्ली के एक Collage से B.Tech करने लगा और वहां भी वो किसी लड़की से बात नहीं करता था क्योंकि ख़ुशी ने उससे जो भी बातें कही थी कही न कही उसके दिल में बैठ गयी थीऔर जब भी उससे कोई लड़की बात करने आती वो मुँह मोड़ लेता वो धीरे धीरे अपने पढाई में और भी अच्छा होता गया और आखिरी में आते-आते वो अपने Collage में भी टॉप 10 की लिस्ट में आ गयाऔर उसे collage से प्लेसमेंट भी मिल गयी और वो जॉब करने फिर से मुंबई चला गया मुंबई एक बहुत ही बड़ा शहर है जहां एक मोहल्ले के लोग दुसरे मोहल्ले वाले को नही जानते हैवही जब अदित्य Office गया तो उसे वहा खुशी दिखी लेकिन अब ख़ुशी के लिए उसके दिल में कोई जगह नहीं थी और इसीलिए वो हर बार ख़ुशी से छिपता रहता |इसलिए नहीं क्योंकि वो उससे नाराज था बल्कि इसलिए क्योंकि वो फिर से ख़ुशी की जिंदगी में नहीं आना चाहता था लेकिन वो कहते है न की भगवान की मर्जी के आगे किसी की नही चलती,एक दिन ऑफिस के कैटिंन में ख़ुशी ने आदित्य को देख लिया और उसके पास जाकर उससे बातें करने लगी, आदित्य के पास भी ख़ुशी से बात करने के आलावा और कोई विकल्प नहीं थादोनों के दिल में पिछले 4 सालों से जो भी दर्द था उन्होंने एक दूसरे को बताया और खूब सारी बातें की ख़ुशी ने उससे बिछड़ने के बाद अपने सफर के बारे में बताया और आदित्य से उसके बारे में पूछाजिसके बाद आदित्य को कही न कही लगने लगा था की ख़ुशी गलत नहीं थी और आदित्य को फिर से ख़ुशी से प्यार हो जाता है कुछ दिन बीतता है और दोनों की दोस्ती और भी गहरी हो जाती हैऔर एक दिन अचानक आदित्य ख़ुशी से बात करते करते उससे अपने प्यार का इजहार कर देता है लेकिन ख़ुशी फिर इंकार कर देती है और जब आदित्य उससे इसकी वजह पूछता है तो वो बताती है कि उसकी शादी तय हो गयी हैऔर एक महीने बात वो ये जॉब छोड़ देगी। जब ये बात आदित्य को पता चली तो वो एक बार फिर टूट गया जिसके बाद वो अपने आप को संभाल नहीं पाया और एक चिठ्ठी ख़ुशी के लिए छोड़ कर चला गया और ख़ुशी उस ख़त को पढ़ती है जिसमे लिखा था--मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ लेकिन शायद तुम मेरी जिंदगी में नहीं हो इसीलिये तो मैंने तुम्हे दो-दो बार खोया है कोई भी इंसान इतना बदनसीब कैसे हो सकता है की अपने प्यार को दो बार खोये मै नही जानता कि मैं तुमसे दूर रह के जी पाउँगा की नहीं लेकिन अगर तुम्हे किसी और से शादी करते देख लूंगा तो पक्का जी नही पाउँगा इसलिये मै तुम्हे और इस शहर दोनों को छोड़ के जा रहा हूँ शायद तुम मुझे भूल जाओ लेकिन दूसरी बार मिलने के बाद मै तुम्हे कभी नहीं भूल पाउँगा, मै भगवन से प्रार्थना करूँगा की वो तुम्हे और तुम्हारे होने वाले पति को हमेश खुश रखे,ख़त पढ़ने के बाद ख़ुशी रोने लगी और आदित्य को बहुत ढूंढा पर वो कही भी नही मिला और बाद में खुशी ने अपने परिवार की ख़ुशी के लिए अभिषेक से शादी कर लीलेकिन ख़ुशी को आज भी ये बात हमेशा सताती रहती है की आदित्य कहा होगा किस हाल में होगा, यहाँ तक तो उसे ये भी नहीं पता कि आदित्य जिन्दा भी है या नहीं, एक तरफ ख़ुशी अंदर ही अंदर घुटती रहती हैलेकिन दूसरी तरफ वो एक परफेक्ट बहू, परफेक्ट पत्नी और परफेक्ट माँ भी है जिसे उसके परिवार वाले हमेशा प्यार करते है और हमेशा प्यार करते रहेंगे |हमे ये तो नही पता की ख़ुशी ने 12th स्टैंडर्ड में या जॉब टाइम पर आदित्य को ठुकरा के गलत किया या सही, लेकिन आदित्य ने ये साबित कर दिया की वो ख़ुशी से सच्चा प्यार करता था और इस बात का एहसास शायद अब ख़ुशी को भी हो चूका था और इसीलिए शायद आज तक ख़ुशी अपने आप को माफ़ नहीं कर पायी है।

प्यार में इतना दर्द किसी को ना मिले नमस्ते दोस्तों आज मै एक बार फिर आप के बीच लेकर आई हूँ एक बेहद ही प्यारी लव स्टोरी तो इसे कृपया पूरा पढ़े और कैसी लगी ये Sad love story in Hindi जरुर बताये , ये कहानी एक ऐसे लड़के की जिसे उसके प्यार में दो बार इंकार मिला लेकिन आज भी शायद उस लड़की को भुला नहीं पाया तो आइये इसे मैं और आप साथ पढ़ते है और जानते है कि क्या है आदित्य और ख़ुशी की sad love story; आदित्य, पढ़ने में थोड़ा average और लड़कियों के मामले में थोडा कच्चा था उसकी मुलाकात 11th स्टैंडर्ड में ख़ुशी से हुई | ख़ुशी, पढ़ने में अच्छी और अपने Future के बारे में बहुत सोचने वाली लड़की थी धीरे-धीरे 11th ख़त्म होते-होते वो अच्छे दोस्त बन गए थे और 12th में आदित्य ने ख़ुशी से अपने प्यार का इजहार कर दिया लेकिन ख़ुशी ने इंकार करते हुए बड़े प्यार से उसे समझाया कि इससे हम दोनो की जिंदगी खराब हो जाएगी क्योंकि हम नाही क्लास में पढ़ाई कर पाएंगे और नाही घर पर, आदित्य को ख़ुशी की बात थोड़ी बुरी लगी लेकिन फिर उसे समझ में आ गया की ख़ुशी सही कह रही है और उससे अपने Future और पढाई पर Focus करना शुरू कर दिया और अब आदित्य...

गोदान भाग 4होरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए एक नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी; लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नज़र लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती। लात मारती है। नहीं, बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगा। कारिन्दा साहब नज़र के लिए मुँह फुलायेंगे। छोटी छोटी बात के लिए राय साहब के पास फ़रियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिन्दे के सामने मेरी सुनता कौन है। उनसे कुछ कहूँ, तो कारिन्दा दुश्मन हो जाय। जल में रहकर मगर से बैर करना लड़कपन है। भीतर ही बाँधूँगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती है। अब पिये जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रुपए भी दे देना चाहिये। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूँ। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दग़ा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दी। नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ, तो भोला को ढाढ़स हो जाय। धनिया से नाहक़ बता दिया। चुपके से गाय लेकर बाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाये हो?। ख़ूब दिक करके तब बताता; लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते हैं; उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिन्ता रहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नख़रे बघारने लगे। गोबर ज़रा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता। मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता था। कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी ज़िन्दगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जब अपने सिर पड़ गयी तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं सँभाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बरबाद कर देगा; लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गये। सोभा और हीरा अलग ही हो गये, नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते हैं। बस, समय का फेर है। धनिया का क्या दोष था। बेचारी जब से घर में आयी, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्मा को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी। आख़िर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिये। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी, अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी, ग़मख़ोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख माँगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए लड़ो वही जान का दुश्मन हो जाता है। होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जगने लगा। नहीं, कहके तो यही सोया था कि मैं अँधेरे ही चला जाऊँगा। जाकर नाँद तो गाड़ दूँ, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गये या और किसी कारन से गाय न दी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने। पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक; लेकिन जब लड़के सयाने हो गये, तो बाप की कौन चलती है। कामता और जंगी अकड़ जायँ, तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे, कभी नहीं। सहसा गोबर चौंककर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला -- अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादा?होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देखकर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता, बोला -- नहीं, अभी नहीं गाड़ी। सोचा, कहीं न मिले, तो नाहक़ भद्द हो।गोबर ने त्योरी चढ़ाकर कहा -- मिलेगी क्यों नहीं?' उनके मन में कोई चोर पैठ जाय? '' चोर पैठे या डाकू, गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी। 'गोबर ने और कुछ न कहा। लाठी कन्धे पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंठा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिये। सत्रहवाँ लग गया; मगर करें कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं, पर घर की दशा देखकर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राज़ी भी हुए, तो रुपए माँगते हैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाये और इतना ही ऊपर से ख़र्च करे, तब जाकर ब्याह हो। कहाँ से आये इतने रुपए। रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गयी। लड़के का ब्याह न हुआ, न सही। लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायगी। एक आदमी ने आकर राम-राम किया और पूछा -- तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो?होरी ने देखा, दमड़ी बँसार सामने खड़ा है, नाटा काला, ख़ूब मोटा, चौड़ा मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक-दो बार आकर चिकें, कुरसियाँ, मोढ़े, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था। होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बँधी। चौधरी को ले जाकर अपनी तीनों कोठियाँ दिखायीं, मोल-भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलायी, जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला -- मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते; लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि नहीं?चौधरी ने चिलम का दम लगाकर खाँसते हुए कहा -- उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गयी। बड़ी नाकिस जात है, महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा, जो चाहे पहन, मेरी नाक न कटवा, मुदा कौन सुनता है। औरत को भगवान् सब कुछ दे, रूप न दे, नहीं वह क़ाबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गयी होंगी? होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला -- सब कुछ बँट गया चौधरी! जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा, वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं; लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपनी नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए मिलेंगे, उधर दोनों भाइयों को बाँट दूँगा। चार दिन की ज़िन्दगी में क्यों किसी से छल-कपट करूँ। नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है। व्यवहार में हम ' भाई ' के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती। होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है। चौधरी ने होरी का आसन पाकर चाबुक जमाया -- हमारा तुम्हारा पुराना भाई चारा है महतो, ऐसी बात है भला; लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है, तो किसी लालच से। बीस रुपए नहीं मैं पन्द्रह रुपए कहूँगा; लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो। होरी ने खिसियाकर कहा -- तुम तो चौधरी अँधेर करते हो, बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते हैं? ' ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी, उतनी देर में तो दो-चार रुपए का काम हो जायगा। 'सौदा पट गया। चौधरी ने मिरज़ई उतार कर छान पर रख दी और बाँस काटने लगा। ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा लेकर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देखकर घूँघट के अन्दर से बोली -- कौन बाँस काटता है? यहाँ बाँस न कटेंगे।चौधरी ने हाथ रोककर कहा -- बाँस मोल लिए हैं, पन्द्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गयी थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपनी पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था; लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाँति जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता है। कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली -- पन्द्रह रुपए में हमारे बाँस न जायँगे।चौधरी औरत जात से इस विषय में बात-चीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले -- जाकर अपने आदमी को भेज दे। जो कुछ कहना हो, आकर कहें।हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गयी थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते। इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखाकर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार फावड़ा भी उचट जाता था। समीप आकर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली -- आदमी को क्यों भेज दूँ। जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न। मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे।चौधरी हाथ छुड़ाता था, और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अन्त में चौधरी ने उसे ज़ोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खाकर गिर पड़ी; मगर फिर सँभली और पाँव से तल्ली निकालकर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अन्धाधुन्ध जमाने लगी। बँसोर होकर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का देकर -- नारी जाति पर बल का प्रयोग करके -- गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पुन्नी का रोना सुनकर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देखकर और ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। ख़ून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाँध को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अन्दर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को ज़ोर से एक लात जमाकर बोला -- अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।चौधरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फूले हुए गाल आँसुओं से भींग गये। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठायेगा। होरी ने अविश्वास करके कहा -- आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रुपए की गर्मी है, तो वह निकाल दी जायगी। अलग हैं तो क्या हुआ, हैं तो एक ख़ून। कोई तिरछी आँख से देखे, तो आँख निकाल लें।पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला फाड़कर बोली -- तूने मुझे धक्का देकर गिरा नहीं दिया? खा जा अपने बेटे की क़सम! हीरा को भी ख़बर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने उसे तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर, आँखें कौड़ी की तरह निकल आयी थीं और गर्दन की नसें तन गयी थी; मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी? क्यों उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी? बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जाकर हीरा से सारा समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गयी? उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोलकर बातें करे, यह उसे असह्य था। वह ख़ुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शान्त रखना चाहता था। जब भैया ने पन्द्रह रुपये में सौदा कर लिया, तो यह बीच में कूदनेवाली कौन! आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने -- हरामज़ादी, तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है, किसकी पगड़ी नीची होती है बता! । ( एक लात और जमाकर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैं, तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया! खोदकर गाड़ दूँगा।पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी, ' तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैज़ा हो जाय, तुझे मरी आये, देवी मैया तुझे लील जायँ, तुझे इन्पलुएंजा हो जाय। भगवान् करे, तू कोढ़ी हो जाय। हाथ-पाँव कट-कट गिरें। 'और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गयी। हैज़ा, मरी आदि में विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गये, लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत, और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ फिर पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़कर फिर उसका सिर ज़मीन पर रगड़ता हुआ बोला -- हाथ-पाव कटकर गिर जायँगे, तो मैं तुझे लेकर चाटूँगा! तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलायेगी? तू तो दूसरा भरतार करके किनारे खड़ी हो जायगी। चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गयी। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा -- हीरा महतो, अब जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ, बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान् ने यह तो दिखाया। हीरा ने चौधरी को डाँटा -- तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरत जात इसी तरह बकती है। आज को तुमसे लड़ गयी, कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानस हो, हँसकर टाल गये, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायेगी, बताओ। इस ख़याल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला -- अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे? हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देखकर बोला -- अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय है। कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली -- लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी क़साई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग! उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा -- वहाँ कहाँ जाती हैं, चल कुएँ पर, नहीं ख़ून पी जाऊँगा। पुनिया के पाँव रुक गये। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला। होरी ने कहा -- अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है। धनिया ने द्वार पर आकर हाँक लगायी -- तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमाशा देख रहे हो। कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये। बहुरिया होकर पराये मरदों से लड़ेगी, तो डाँटी न जायेगी। होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला -- और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँ?' क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है? '' इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पुनिया बड़ी ग़मख़ोर है। '' ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग़ बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने ख़ाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ। '' अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी।' जब महीनों ख़ुशामद करता था, तब जाकर आती थी! '' जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे। '' इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ। 'वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। धनिया ने आँखों में रस भरकर कहा -- चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले। ज़रा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा -- ले, अब यही तेरी बेइंसाफ़ी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?धनिया ने बात बदलकर कहा -- देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि ख़ाली हाथ।चौधरी ने पसीने में लथ-पथ आकर कहा -- महतो, चलकर बाँस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊँगा।होरी ने बाँस गिनने की ज़रूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी ही काट लेगा, तो क्या। रोज़ ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दरजनों बाँस काट ले जाते हैं। चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिये। होरी ने गिनकर कहा -- और निकालो।हिसाब से ढाई और होते हैं। चौधरी ने बेमुरौवती से कहा -- पन्द्रह रुपये में तय हुए हैं कि नहीं?' पन्द्रह रुपए में नहीं, बीस रुपये में। '' हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पन्द्रह रुपये कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ। '' तय तो बीस रुपये में ही हुए थे चौधरी! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो। 'मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर। होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंककर रह गया। बस इतना बोला -- यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबाकर राजा न हो जाओगे। चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला -- और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो जाओगे? ढाई रुपये पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाय।होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौधरी तो रुपए सामने ज़मीन पर रखकर चला गया; पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिये होते, तो वह ख़ुशी से कितना फूल उठता। अपनी चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाये ढाई रुपए मिल गये। ठोकर खाकर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं। धनिया अन्दर चली गयी थी। बाहर आयी तो रुपए ज़मीन पर पड़े देखे, गिनकर बोली -- और रुपए क्या हुए, दस न चाहिए?होरी ने लम्बा मुँह बनाकर कहा -- हीरा ने पन्द्रह रुपए में दे दिये, तो मैं क्या करता।' हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों। '' वहाँ मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता। 'होरी ने अपनी पराजय अपने मन में ही डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीतकर आप अपनी धोखेबाज़ियों की डींग मार सकते हैं; जीत से सब-कुछ माफ़ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है। धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था; पर आज बाज़ी धनिया के हाथ थी। हाथ मटकाकर बोली -- क्यों न हो, भाई ने पन्द्रह रुपये कह दिये, तो तुम कैसे टोकते। अरे राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं। फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी, तो भला तुम कैसे बोलते। उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम्हें सुध न होती।होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुँझलाहट हुई, क्रोध आया, ख़ून खौला, आँख जली, दाँत पिसे; लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठायी और ऊख गोड़ने चला। धनिया ने कुदाल छीनकर कहा -- क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गये। नहाने-धोने जाओ। रोटी तैयार है।होरी ने घुन्नाकर कहा -- मुझे भूख नहीं है।धनिया ने जले पर नोन छिड़का -- हाँ काहे को भूख लगेगी। भाई ने बड़े-बड़े लड्डू खिला दिये हैं न! भगवान् ऐसे सपूत भाई सबको दें।होरी बिगड़ा। क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था -- तू आज मार खाने पर लगी हुई है।धनिया ने नक़ली विनय का नाटक करके कहा -- क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।' तू घर में रहने देगी कि नहीं? '' घर तुम्हारा, मालिक तुम, मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालनेवाली। 'होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुन्द हो गयी है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा लेकर नहाने चला गया। लौटा कोई आध घंटे में; मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी, तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा। धनिया ने कहा -- अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आयेगा।होरी ने और कुछ न कहा। कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे। भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा। रूपा रोती हुई आई नंगे बदन एक लँगोटी लगाये, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गयी। उसकी बड़ी बहन सोना कहती है -- गाय आयेगी, तो उसका गोबर मैं पाथूँगी।रूपा यह नहीं बरदाश्त कर सकती। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है। सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बरतन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भरकर इठलाती चली आती है। रस्सी समेटकर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे? होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध होकर कहा -- नहीं, गाय का गोबर तू पाथना सोना गाय के पास जाये तो भगा देना।रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा -- दूध भी मैं ही दुहूँगी।' हाँ-हाँ, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा? '' वह मेरी गाय होगी। ''हाँ, सोलहो आने तेरी। 'रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूँगी, उसका गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा। सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाये, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लम्बा, रूखा, किन्तु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो। सिर को एक झटका देकर बोली -- जा तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।' मैं दूध की हाँड़ी ताले में बन्द करके रखूँगी। '' मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी। 'यह कहती हुई वह बाग़ की तरफ़ चल दी। आम गदरा गये थे। हवा के झोंकों से एकाध ज़मीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले; लेकिन बाल-वृन्द उन्हें टपके समझकर बाग़ को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा ज़रूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चचार् नहीं करता; इसलिए वह स्वयम् अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई बालक उससे विवाह करने पर राज़ी न होता। साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया, सानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फ़सल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ क़रज़ था, जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। मँगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रुपए लिए थे, उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गये थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन तेल तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गये थे, क्योंकि आने रुपये का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाक़ी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गये। शगुन की समस्या हल हो जायगी; लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धेला भी हाथ में आ जाय, तो गाँव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ़ से नोचने लगते हैं, ये पाँच रुपये तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाय; मगर अभी ज़िन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम ख़र्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आयेंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा क़रज़ न ले, जिसका आता है, उसका पाई-पाई चुका दे; लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा, उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था, तो यह चिन्ता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर सन्तोष था तो यही कि यह विपित्त अकेले उसी के सिर न थी। प्रायःसभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे; मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हज़ार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर-भिखारी भीख भी नहीं पाता; लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा है। सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं -- भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पछे भीया हैं। रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह ख़बर सुनाने की सुर्ख़रूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता। उसने आगे बढ़कर कहा -- पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा। सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली -- तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा, भैया हैं। दोनों फिर बाग़ की तरफ़ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए। धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबन्ध करने लगे। होरी बोला -- चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें।धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी -- नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।' कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे। '' सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नज़र बहुत लगती है। '' आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी। 'धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाये रखना चाहती थी। इतनी बड़ी सम्पदा अपने साथ कोई नयी बाधा न लाये, यह शंका उसके निराश हृदय में कम्पन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली -- गाय के आने का आनन्द तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान् के मन की बात है। मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनन्द नहीं हुआ कि ईर्ष्यालु भगवान् सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति भेज दें। वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिये बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर पहुँचा। होरी दौड़कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के गले में बाँध दिया। होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात् देवीजी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान् ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से। धनिया ने भयातुर होकर कहा -- खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो। आँगन में, जगह कहाँ है? '' बहुत जगह है। '' मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ। '' पागल न बनो। गाँव का हाल जानकर भी अनजान बनते हो। '' अरे बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बँधेगी भाई? '' जो बात नहीं जानते, उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बिद्या तुम्हीं नहीं पढ़े हो। 'होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव सम्पत्ति भी थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बँधे देखकर पूछें -- यह किसका घर है? लोग कहें -- होरी महतो का। तभी लड़कीवाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अन्दर छिपाकर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकालने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने पर तैयार हो गयी। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था; पर धनिया ने अकेले सब को परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्म-विश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था। मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आयी न थी। कैसे सम्भव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपये में आयी है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे, पचास-साठ रुपए में लाये होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये, सौ के भी आये, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रक़म किसान क्या खा के ख़र्च करेगा। यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अँजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात् देवी का रूप है। दर्शकों, आलोचकों का ताँता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था। सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोले -- कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुन्दर है।होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगे देखीं, थन देखा, पुट्ठा देखा और घनी सफ़ेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भरकर बोले -- कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जायेंगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा -- सब आपका असीरबाद है, दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा -- मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, ज़रा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग़ आसमान पर चढ़े। बोला -- भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये, पूरे चौकस। अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था। प्रसन्न होकर बोले -- कोई हरज़ नहीं बेटा, कोई हरज़ नहीं। भगवान् सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।धनिया ने तुरन्त टोका -- अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है। दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतकर्ता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों,' गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो। 'फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले -- बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो -- लो अब तो मानोगे। दातादीन से बोली -- नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान् दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बँध सकती हैं।सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आये तो सोभा और हीरा जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं। होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा -- न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?धनिया बोली -- तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।' तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने संगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहरवालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे ख़ून थोड़े ही बट जाता है। दोनों को बुलाकर दिखा देना चाहिए। नहीं कहेंगे गाय लाये, हमसे कहा तक नहीं। 'धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा -- मैंने तुमसे सौ बार हज़ार बार कह दिया मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुनकर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी; मगर आये कैसे? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गयी। छाती फटी जाती होगी।दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जाकर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे होते, तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी; कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और कहा -- ज़रा जाकर देख, हीरा काका आ गये कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आये, हाथ पकड़कर खींच लाना।रूपा ठुनककर बोली -- छोटी काकी मुझे डाँटती है।' काकी के पास क्या करने जायगी। फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है? '' सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं ... मैं न कहूँगी। '' क्या कहते हैं, बता? '' चिढ़ाते हैं। '' क्या कहकर चिढ़ाते हैं? '' कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भूनकर खा ले। 'होरी के अन्तस्तल में गुदगुदी हुई। ' तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी। '' अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो। '' तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की? 'रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा -- अम्माँ की, और हँसने लगी।' तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपनी थाली में न खिलाऊँगा। 'घर में एक ही फूल की थाली थी, होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली -- अच्छा, तुम्हारी।' तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का? '' तुम्हारा। '' तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला। '' और जो अम्माँ बिगड़ें। '' अम्माँ से कहने कौन जायगा। 'रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बन्द थी; पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर! लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गयी। उसने पूछा -- साँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर। रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।धनिया ने डाँटा -- चल घर, किसी को बुलाने नहीं जाना है। रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आयी और होरी से बोली -- मैंने तुमसे हज़ार बार कह दियाॡ मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो मैं तुम्हें लेकर चाटूँगी? ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला -- किस बात पर बिगड़ती है भाई! यह तो अच्छा नहीं लगता कि अन्धे कूकर की तरह हवा को भूँका करे। धनिया को कुप्पी में तेल डालना था, इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली। पहर रात से ज़्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आयी हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खाकर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाये, पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नयी बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दुःख होता है। होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा, तो फिर भाइयों की याद आयी। नहीं, आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है, तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आयी होती, तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी, तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उसका बुरा चेते। अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ है। उसने नारियल खाट के पाये से लगाकर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफ़ी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपनी चर्चा सुनकर टाल जाय। हीरा ने कहा -- जब तक एक में थे, एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाई गाय ली जाती है। भाई का हक़ मारकर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।सोभा बोला -- यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।' तुम मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई। '' किसी पर झूठा इलज़ाम न लगाना चाहिए। '' अच्छा तो यह रुपए कहाँ से आ गये? कहाँ से हुन बरस पड़ा। उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफ़न को कौड़ी नहीं और उनके घर नयी गाय आती है? '' उधार लाये होंगे। '' भोला उधार देनेवाला आदमी नहीं है। '' कुछ भी हो, गाय है बड़ी सुन्दर, गोबर लिये जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा। '' बेईमानी का धन जैसे आता है, वैसे ही जाता है। भगवान् चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी। 'होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसारकर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँसकर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे; लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ़ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान् के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तम्बाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया, पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन्हें सहलाने लगा, विष शान्त न हुआ। दूसरी चिलम भरी; लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्तान्त कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है, जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज़ साँझ होते ही सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जाकर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक़्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं। धनिया ने पूछा -- कहाँ लिये जाते हो रात को?होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा -- ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा।धनिया को विस्मय हुआ, उठकर सामने आ गयी और बोली -- लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाये थे।' हाँ इसके लौटा देने में ही कुशल है? '' क्यों बात क्या है? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं? '' नहीं, भोला यहाँ कब आया? '' तो फिर क्या बात हुई? '' क्या करोगी पूछकर? 'धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली -- तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जाकर उसके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती है, तो फट जाय, मुझे परवाह नहीं है।होरी ने विनीत स्वर में कहा -- धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने, तो कहे, ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ, तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये थे और भाइयों को धोखा दिया था, यही रुपए अब निकल रहे हैं। '' हीरा कहता होगा? '' सारा गाँव कह रहा है! हीरा को क्यों बदनाम करूँ। '' सारा गाँव नहीं कह रहा है, अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये, सारी ज़िन्दगी मिट्टी में मिला दी, पाल-पोसकर संडा किया, और अब हम बेईमान हैं! मैं कहे देती हूँ, अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिये हमने रुपए, दबा लिये, बीच खेत दबा लिये। डंके की चोट कहती हूँ, मैंने हंडे भर अशर्फ़ियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया? 'होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली, और गाय को खूँटे से बाँधकर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा; पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थामकर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को ख़ूब जानता था। बिगड़ती है, तो चंडी बन जाती है। मारो, काटो, सुनेगी नहीं; लेकिन हीरा भी तो एक ही ग़ुस्सेवर है। कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाय। नहीं, हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का ककर्श स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आयी। बाहर लपककर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। ग़ज़ब हो गया! गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया ख़ून है, न जाने क्या कर बैठे; लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा, आप बोलते नहीं, जाकर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गयी। मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है, और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं। इतनी देर तक तो वह ज़ब्त किये बैठा रहा। फिर न रह गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहे, यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर ग़म खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाज़ा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सब की चिरौरी करो, अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय। उसका हीरा पर तो कोई बस न था; मगर धनिया को तो वह ज़बरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रूठी रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न आयेगी। जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपनी जीत हो रही है, तो बोलने की कोई ज़रूरत नहीं; हार हो रही है, तो तुरन्त कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गये हैं। पण्डित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे, सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हलका हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किये देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी। वह गरज रही थी -- तू हमें देखकर क्यों जलता है? हमें देखकर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोसकर जवान कर दिया, यह उसका इनाम है? हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। रूख की छाँह भी न मिलती।होरी को ये शब्द ज़रूरत से ज़्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता-पोसता? दुनिया में कहीं मुँह दिखाने लायक़ रहता? हीरा ने जवाब दिया -- हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिये रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़कर ज़िन्दगी तलख़ हो गयी।धनिया और भी तेज़ हुई -- ज़बान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी-काटे, टुकड़े-ख़ोर, नमक-हराम।दातादीन ने टोका -- इतना कटु-वचन क्यों कहती है धनिया? नारी का धरम है कि ग़म खाय। वह तो उजड्डा है, क्यों उसके मुँह लगती है?लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया -- बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा; लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी? धनिया ने समझा, सब-के-सब मिलकर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गयी -- अच्छा, रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गये। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों?दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला -- बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती। अगर हीरा इस समय ज़रा नर्म हो जाता, तो उसकी जीत हो जाती; लेकिन ये गालियाँ सुनकर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देखकर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़कर बोला -- चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। ख़ून ...पाँसा पलट गया। होरी का ख़ून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गयी हो। आगे आकर बोला -- अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ। जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कहा, पटेश्वरी ने गुंडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा। एक उद्दंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाक़ी था। धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली -- सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते रहते हो। ये भाई हैं, ऐसे भाई का मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला...होरी ने डाँटा -- फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती?धनिया ज़मीन पर बैठ गयी और आर्त स्वर में बोली -- अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। ज़रा इसकी मरदूमी देख लूँ, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आयेगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं!यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपटकर हीरा को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली -- कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मरदूमी!होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।

गोदान भाग 4होरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए एक नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी; लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नज़र लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती। लात मारती है। नहीं, बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगा। कारिन्दा साहब नज़र के लिए मुँह फुलायेंगे। छोटी छोटी बात के लिए राय साहब के पास फ़रियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिन्दे के सामने मेरी सुनता कौन है। उनसे कुछ कहूँ, तो कारिन्दा दुश्मन हो जाय। जल में रहकर मगर से बैर करना लड़कपन है। भीतर ही बाँधूँगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती है। अब पिये जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और ...

गोदान भाग 3होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला -- आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया, कुछ सूझता है कि नहीं?उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये। गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था। वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फ़िक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लँगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी।रूपा ने होरी की टाँगों में लिपट कर कहा -- काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी।होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा -- तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला -- यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की ख़ुशामद करने क्यों जाते हो? बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नज़र-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना ज़रूरी था। बोला -- सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ। भगवान् ने जब ग़ुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है। यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा। घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नज़र देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फ़ुरसत नहीं है।गोबर ने कटाक्ष किया -- बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द तो मिलता ही है। नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हों?'जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।'पिता पर अपना क्तोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँटकर बोली -- अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गये हैं?रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा -- न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा -- तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया? सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता।सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया -- सोना न हो मोहन कैसे बने, नथुनियाँ कहाँ से आयें, कंठा कैसे बने?गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला -- तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला है, रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज।सोना बोली -- शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।रूपा इस दलील से परास्त हो गयी। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी। बोला -- सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम ग़रीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त होकर बोली -- तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।रूपा ने उँगली मटकाकर कहा -- ए राम, सोना चमार -- ए राम, सोना चमार।इस विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। ज़मीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी -- रूपा राजा, सोना चमार -- रूपा राजा, सोना चमार!ये लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली -- आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।फिर पति से गर्म होकर कहा -- तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गये। खेत कहीं भागा जाता था!द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यार्-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!धनिया ने पूछा -- मालिक से क्या बात-चीत हुई?होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा -- यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज़्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिन्ता है, उन्हें हज़ारों चिन्ताएँ घेरे रहती हैं।राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।गोबर ने व्यंग्य किया -- तो फिर अपना इलाक़ा हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मज़े से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!होरी ने झुँझलाकर कहा -- अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफ़री की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह ज़मींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को ख़ुश करो। तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय , कुड़की आ जाय। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गलियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।गोबर ने प्रतिवाद किया -- यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुज़र नहीं होता। उन्हें क्या, मज़े से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?'तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?' 'भगवान् ने तो सबको बराबर ही बनाया है।''यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भजवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?'यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान् सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।''यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान् का भजन करते हैं।''किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?''अपने बल पर।''नहीं, किसानों के बल पर और मज़दूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान् का भजन भी इसीलिए होता है, भूखे-नंगे रहकर भगवान् का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे तो हम आठों पहर भगवान् का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भिक्त भूल जाय।'होरी ने हार कर कहा -- अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान् की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा -- ज़रा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देखकर कहा -- हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।'बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।''हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।''दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं।'धनिया मटक्कर बोली -- गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!होरी ने क़सम खायी -- नहीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँगा। थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।गोबर ने आड़े हाथों लिया -- तुम्हारा यही धमार्त्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है। साफ़-साफ़ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें ओर गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया -- मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-चार मन भूसा तो ख़ाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।गोबर ने तिरस्कार किया -- तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?धनिया ने तीखी आँखों से देखा -- अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोली-भाली किसी का करज़ नहीं खाया है।होरी ने अपनी सफ़ाई दी -- अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई है?गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।धनिया ने सिर हिला कर कहा -- जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा। एक थैली गिनवायेगा।होरी ने पुचारा दिया -- यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है -- ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली -- मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा -- मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं लक्षमी है। बात यह है कि उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी तेज़ थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ ज़रूर हाथ लगता है। मैंने कहा -- तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज़ देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।'तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।''लगा अपनी घरवाली की बुराई करने -- भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी!''मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देखकर जल उठती थी।''भोला बड़ा ग़मख़ोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो ज़हर खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं।''तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?''उस दिन भगवान् कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।''बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के ख़रबूज़े उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।''और भोला रोते काहे को हैं?गोबर आकर बोला -- भोला दादा आ पहुँचे। मन दो मन भूसा हैरु वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढ़ने निकलो।धनिया ने समझाया -- आदमी द्वार पर बैठा है उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह धोयें, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।होरी बोला -- रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।धनिया बिगड़ी -- पाहुने और कैसे होते हैं! रोज़-रोज़ तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़कर एक पैसे का तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।भोला की आज जितनी ख़ातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा -- अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी। वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था। चिन्ता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।होरी जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा -- जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिये, तो दो मन निकल जायँगे।धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली -- या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये हैं कि चँगेरी लेकर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया। अकेले कहाँ तक ढोयेगा। जान निकल जायगी।'तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायँगे !''तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला जाय।''गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।''एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायगी।''यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान् के दिये दो-दो बेटे हैं।''न होंगे घर पर। दूध लेकर बाज़ार गये होंगे।''यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादनेवाला साथ कर दे।''अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।''और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खायेंगे?''यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।''मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!''अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े।''ज़मींदार की बात और है।''हाँ, वह डंडे के ज़ोर से काम लेता है न।''उसके खेत नहीं जोतते?''खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?''अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जायँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।'तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में ज़रा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।होरी और गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये। भोला ने तुरन्त अपने अँगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा -- मैं इसे रखकर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा।होरी बोला -- एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें आना नहीं पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।भोला स्तम्भित हो गया। होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके सम्पूर्ण जीवन को हरा कर दिया।तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें होने लगीं।भोला ने पूछा -- दशहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?'हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है। अब की लीला में मैं भी काम करूँगा। राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।''मालिक तुमसे बहुत ख़ुश हैं।''उनकी दया है।'एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा -- सगुन करने के रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।होरी ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा -- उसी की चिन्ता तो मारे डालती है दादा -- अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। ज़मींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। ज़मींदार तो एक ही हैं; मगर महाजन तीनतीन हैं, सहुआइन अलग, मँगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। ज़मींदार के भी आधे रुपए बाक़ी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये तो काम चला। सब तरह किफ़ायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और बड़ों का घर भरें। मूलका दुगना सूद भर चुका; पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँधकर ख़रच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हज़ार लुटा दिये। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के िक्तया-करम में पाँच हज़ार लगाये। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसा ही मरजाद तो सबका है।भोला ने करुण भाव से कहा -- बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?'आदमी तो हम भी हैं।'कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह हैं, जिनके पास धन है, अख़्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उसपर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।'बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोबर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा।भोला ने सहृदयता से पूछा -- अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।होरी आद्रर् कंठ से बोला -- कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना, धरना उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा -- यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह नहीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? ख़रचा करना चाहते हो तो कमाओ; मगर कमाई तो किसी से न होगी। ख़रच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर बाज़ार जायगा, तो आधे पैसे ग़ायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं; लेकिन यह सब काम फ़ुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर; सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध लेकर बाज़ार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है, झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घर-बर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगा; मगर वह राज़ी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलज़ार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गायें-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुख़ीर् थी। मालूम होता था, अभी रोकर उठी है। उसके मांसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का वही गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाये और झुनिया से बोले -- पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है न?फिर होरी से बोला -- घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है -- नाटन खेती बहुरियन घर। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी। बहुएँ आटा पाथ लेती हैं। पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना ख़ूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ही है। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुनाकर। मैं तो सह लेता हूँ, ख़सम थोड़े ही सहेगा।झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुतीर् से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा -- तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ।झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जाकर मुस्कराती हुई बोली -- तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।'मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।''पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है।''रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।' झुनिया हँसकर तिरछी नज़रों से देखती हुई बोली -- वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बेर आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पन्द्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, ख़ाली बैठने को माची दूँगी। रोज़-रोज़ आओगे, कुछ न पाओगे।'दरसन तो दोगी?''दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।'यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिन्त थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है।गोबर ने कलसा भरकर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे। भोला ने कहा -- कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है।गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थी और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुन्दर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।होरी ने लोभ को रोककर कहा -- मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?'तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह बात याद रहेगी।''उसकी मुझे बड़ी फ़िकर है दादा!''तो कल गोबर को भेज देना।'दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा की भाँति अधीर, चंचल।

गोदान भाग 3 होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला -- आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया, कुछ सूझता है कि नहीं? उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये। गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था। वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फ़िक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लँगोटी कमर में ...